समाधि एक सामान्य रूप से प्रयोग किया जाने वाला संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है-
ध्यान की ऐसी स्थिति जिसमें बाहरी चेतना विलुप्त हो जाती है। इसे
ध्यान का या आध्यात्मिक जीवन का आखिरी चरण माना जाता है। इसलिए
इस शब्द का उचित अर्थ समझ लेना आवश्यक है। वास्तव में यह संस्कृत का शब्द है
जो ग्रीक,
लैटिन और फारसी भाषा की तरह ही एक
प्राचीन भाषा है
और हर शास्त्रीय भाषा की तरह संस्कृत में भी अधिकतर शब्द
कुछ मूल
शब्दों से उत्पन्न हुए हैं।
'समाधि' शब्द मूलरूप से ‘धा’ शब्द से लिया गया है, जिसके
अर्थ होते हैं - रखना, स्थापित करना, प्रस्तुत करना, छोड़ देना या स्थित। इसी प्रकार 'समाधि' शब्द के
अर्थ हैं - एक
साथ जोड़ना, संजोना, संघ, समापन, एकाग्रता, ध्यान, या समझौता। वैसे, आध्यात्मिक
जीवन में 'समाधि' ध्यान की उस स्थिति को कहा जाता है जब ध्यान लगाने वाला व्यक्ति और ध्यान की जाने वाली चीज दोनों का आपस में विलय हो जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं, उनमें कोई भेद नही रह जाता। फिर इस चरण में कोई विचार प्रक्रिया नहीं रह जाती।
इसे ध्यान की उच्चतम अवस्था
माना जाता है। समाधि, शांत मन की सबसे अच्छी स्थिति है। इसके अतिरिक्त इसे
एकाग्रता की भी सर्वोच्च अवस्था माना जाता है। इसके अंतर्गत किसी वस्तु पर ध्यान
एकाग्र करने वाला व्यक्ति और वस्तु आखिरकार दोनों एक हो जाते हैं। अर्थात् ध्यान
की इस स्थिति में, ध्यान लगाने वाले व्यक्ति के आत्म और उस वस्तु के बीच का अंतर पूरी
तरह से मिट जाता है। वे एकाकार हो जाते हैं।
उपनिषदों में कहा गया है कि
किसी व्यक्ति को समाधि की अवस्था प्राप्त करने से पहले अनावश्यक
गतिविधियों से बचना चाहिए। उसे संयमित वाणी, संयमित शरीर और संयमित मस्तिष्क
की आवश्यकता होती है। उसे आध्यात्मिक जीवन की सभी कठिनाइयों के प्रति न केवल
सहनशील होना चाहिए अपितु उसका त्यागी और धैर्यवान होना भी आवश्यक है। एक व्यक्ति
वास्तव में अपनी सच्ची प्रकृति और आत्ममान केवल समाधि के द्वारा ही
प्राप्त कर सकता है।
वैसे, स्वामी विवेकानंद जी
द्वारा बताए गए निम्नलिखित चार योगों - राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग और जननयोग में
से किसी एक के द्वारा समाधि की अवस्था प्राप्त की जा सकती है।
राज योग अर्थात् मानसिक
नियंत्रण के अभ्यास के अलग - अलग चरणों का पालन करके व्यक्ति समाधि की अवस्था
प्राप्त कर सकता है। कर्म योग में स्वामीजी ने बताया है कि निःस्वार्थ कर्म यानी
बिना फल की चिंता किए किया जाने वाला काम करके भी समाधि की अवस्था को प्राप्त किया
जा सकता है। इसी प्रकार भक्ति और जननयोग के द्वारा भी समाधि प्राप्त की जा सकती है।
समाधि की अवस्था में मन अन्य
सभी वस्तुओं का संज्ञान खो देता है। यहां तक कि उस वस्तु तक का
जिसपर ध्यान लगाया गया था। इस स्थिति में मन, ध्यान लगाई
जाने वाली वस्तु में इतना तल्लीन हो जाता है कि किसी और का कोई भान ही नही रहता।
समाधि का एक अर्थ यह भी है कि इस स्थिति में व्यक्ति तीनों सामान्य चेतनाओं -
सोने, जागने और सपने देखने की अवस्थाओं से परे
किसी चौथी अवस्था में चला जाता है।
समाधि की स्थिति में व्यक्ति का अहंकार पूरी तरह से नष्ट हो
जाता है। फिर मन
एक ऐसे अस्तित्व में रहता है, एक ऐसी अवस्था में विलीन हो जाता है, जो ज्ञान और
अहं से कहीं ऊपर है। इनसे कहीं परे है। जहां व्यक्ति स्वयं अपनी चेतना खो देता है।
समाधि, व्यक्ति को सामान्य से
विशेष बना देती है। यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसमें व्यक्ति प्रबुद्ध हो जाता है,
उसे आत्मज्ञान हो जाता है। और फिर वो सदा - सदा के लिए जन्म-मृत्यु (आवागमन) की
बेड़ियों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
इसके अतिरिक्त समाधि में कारण,
प्रभाव और तर्क के संकीर्ण क्षेत्रों का कोई स्थान नही रह जाता। समाधि में कुछ भी
तार्किक नहीं है। इस स्थिति के अंतर्गत शरीर लगभग पूरी तरह से अपनी सभी सचेतन
शारीरिक गतिविधियों को बंद कर देता है, फिर भी व्यक्ति मरता नहीं है।
यह एक विचारशून्य अवस्था है, जिससे लौटने के बाद व्यक्ति के विचार अपने आप में
पूर्ण और निर्बाध होते हैं और उसके विचारों में स्पष्ट वैश्विक दृष्टि झलकती है।
इस प्रकार से समाधि को ऐसी अवस्था के रूप में समझा जा सकता है जो तर्क, चेतना और
विचारों से कहीं परे है।
लेखक : संपादक प्रबुद्ध भारत। यह आलेख लेखक के अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद है |
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