- अब इस द्वितीय भाग में विवाह के मुख्य संस्कार हल्दीहाथ से लेकर वधू गृह प्रवेश तक की प्रविधियों का सविस्तार वर्णन किया जा रहा है।
पहले
भाग में पौराणिक ग्रन्थों धर्म/गृह्य सूत्रों में वर्णित संस्कारों की
आवश्यकता, विवाह संस्कार का मूल उद्देश्य, विवाह की मूलभावना, विवाह
के प्रकार तथा उत्तराखंड-गढ़वाल के ग्रामीण अंचलों में विवाह से पूर्व सम्पन्न किए
जाने वाले संस्कारों जैसे; मांगण,
वाग्दान,
सा-पट्टा,
वेदी निर्माण,
मांगल गायन,
आदि के संबंध में प्रचलित धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताओं तथा ग्रामीण समाज के
विशिष्ट रीति रिवाजों पर भी पर्याप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया गया था। अब इस
द्वितीय भाग में विवाह के मुख्य संस्कार हल्दीहाथ से लेकर वधू गृह प्रवेश तक की
प्रविधियों का सविस्तार वर्णन किया जा रहा है।
हल्दी हाथ व बान पहाड़ी क्षेत्रों में गाँव दूर-दूर होते हैं इसलिए बारात
को तड़के सुबह प्रस्थान करना पड़ता है। अतः बारात प्रस्थान से एक दिन पहले ही हल्दी
हाथ व बान संस्कार संपन्न कर लिये जाते है। शहरों में यह संस्कार उसी दिन संपन्न
होते हैं। इस हेतु प्रातःकाल स्नानादि से निवृत होकर सर्वप्रथम गणेश, वरुण- कलश
आदि पञ्चदेव इष्ट/कुल देवताओं का षोडशोपचार पूजन संपन्न किया जाता है। नांदी
श्राद्ध भी पितरों की शान्त्यर्थ आवश्यक माना जाता है। तत्पश्चात उच्चकुल की ऐसी
सुहागिन नारियों को आमंत्रित किया जाता है जिनके सभी पुत्र/पुत्री जीवित हों और
कोई गर्भ खंडित न हुआ हो अथवा, पांच कन्याओं को न्यौत कर, वर/वधू का हाथ लगवा कर, उन से कच्ची हल्दी व
चावल कुटवा कर हल्दीहाथ की रस्म पूरी करवाई जाती है। कुटे हुए हल्दी व चावल को छोल्का (छोलिका) कहते है। इसमें से कुछ हल्दी, चावल, फल व मिष्ठान्न
कन्या के घर ले जाये जाते हैं जो लग्न के समय ग्रंथिबंधन के बाद छोलिकाभरण संस्कार में प्रयुक्त होते हैं। इसके बाद
बान देने की प्रक्रिया होती है।
Hands with Haldi.
बान के लिए कुटी हुई हल्दी, जौ व चने का आटा, अष्टगंध, सुगन्धि
द्रव्य(इत्र), सर्वौषधि आदि मिला कर उबटन तैयार किया जाता है। आँगन में खुले स्थान पर गोबर
से लिपाई करके एक चौकी स्थापित की जाती है जिस पर वर/वधु को पूर्वाभिमुख बैठाया
जाता है। उनके पैर रखने के लिए एक बड़ी परात रखी जाती है। परात में कुटी हुई हल्दी,
दही, तेल व उबटन के दोने रखे जाते हैं। घर-परिवार की सुहागिन स्त्रियाँ पूरा
श्रृंगार करके बान देने के लिए सज-धज कर उपस्थित होती है। वर/वधु के ऊपर दो
स्त्रियां/कन्याएँ, एक दक्षिण व एक उत्तर दिशा में खड़ी होकर एक पीले/लाल रंग
का दुशाला/शौल तान कर खडी हो जाती हैं। दुशाले के बीच में एक थाली में चावल, हल्दी
की गाँठ, उरद की पकौड़ी, लड्डू व् कुछ रुपये रखे जाते हैं। सर्व प्रथम पुरोहित जी
और फिर कन्याओं से बान दिलाये जाते हैं। उसके पश्चात सुहागिन स्त्रियाँ बान देती हैं।
बान देने के लिए दूब की (दूब घास वंश वृद्धि की प्रतीक मानी जाती है) दो गुच्छीयाँ
बनाई जाती है जिन्हें हल्दी, उबटन, तेल व दही में डुबो कर वर/वधु के पैरों, घुटनों, हाथों, कन्धों व
सर पर लगा कर फिर अपने सर से छुआ कर तीन या पांच बार प्रक्रिया दोहराई जाती है। इधर
बुजुर्ग व अन्य सुहागिन नारियां माँगल गाती रहती हैं।
BAAN
जिया रैन, मांजी स्वागेण, जैन तेल फुलेल चढा यो
हरि हरि ना के मंगल, लाल चंदोया चढायो
हरि हरि ना के मंगल, हल्दी को बान चढ़ाsयो
जिया रैन भौजी स्वागेण, जैन तेल
फुलेल चढायो ....
इसी प्रकार सभी सुहागिन नारियों, चाची, ताई, मामी,
बुआ, मौसी, बहिन, सखियों के बान देते समय मंगलेर नारियां मंगल गान गाती रहती है।
जिसका आशय होता है की श्री हरी का नाम लेते हुए विष्णु/लक्ष्मी रुपी वर/कन्या, जिनके ऊपर लाल
चंदोया चढ़ाया गया है, को तेल-फुलेल चढाने वाली माँ, मामी, चाची..........सभी
सुहागिन नारियां दीर्घजीवी हों। बान के बाद बचे हुए उबटन को वर/कन्या के शरीर पर
मला जाता है। (हल्दी को आयुर्वेदिक रूप से भी
स्वास्थ्य वर्धक माना गया है। हल्दी में एंटीसेप्टिक, एन्टीबायोटिक गुण होते हैं
तथा सौन्दर्य निखारने में भी कारगर है। आध्यात्मिक रूप से भी हल्दी को पवित्र माना
जाता है और यह विष्णु/लक्ष्मीजी को भी अति प्रिय है) बाकी बचे हुए उबटन को उपस्थित नारियां, युवतियां,
जीजा-साली, भाभी-देवर आदि आपस में एक दूसरे को लगाते हैं और इस तरह एक हंसी-
ठिठोली, आनंद- उल्लास का माहौल बन जाता है।
इसके पश्चात वर/वधु को स्नान करा कर नए वस्त्र पहनाये
जाते हैं और विष्णु/लक्ष्मी स्वरुप मानते हुए उनकी आरती की जाती है। आरती के लिए
कांसे की थाली में उबटन से स्वस्तिक बनाकर स्वस्तिक की भुजाओं को जौ के दानों से
सजाया जाता है और चारों कोनों पर घी की बत्तियां जला कर मांगल गीतों के साथ आरती
की जाती है। आरती करने वाली स्त्रियों को रम्भा (स्वर्ग की सुन्दर अप्सरा) की
संज्ञा दी जाती है। इस अवसर पर लड्डू व उरद की पकोड़ी बांटी जाती है।
न्हाइ धोई लाडी मेरी दिप्प रूप व्हेगी, पैरो पैरो लाडी रेशमी बस्तर.
बाबाजी तेरा ल्हैन मोत्यों जड़ी आंगी, चाचाजी ल्हैन पिटारी सजैकी.
xxx xxx
छणवा छणवा आटा का दिवड़ा बणाया, करो रम्भा सेळि आरतीइ,......
इसी प्रकार वर को वर-नारायण अर्थात विष्णु स्वरुप
मानकर आरती की जाती है। तत्पश्चात थाली के नीचे तली पर दिए के धुंयें से काजल बना
कर तेल के साथ मिलाकर वर/कन्या की आँखों की सुन्दरता बढाने व नजर से बचाने के
उद्देश्य से आँखों पर व कान के नीचे लगाया जाता है। अब वर/ कन्या के मामा उन्हें
गोद में उठा कर पूजा वाले स्थान पर ले जाते है जहां उनका विष्णु/ लक्ष्मी मान कर
पूजन किया जाता है। इसके बाद पीले कपडे के टुकड़ों पर कौड़ी, हल्दी की गाँठ, अक्षत,
पीली राई के दाने व एक रुपये का सिक्का रख कर मौली से बाँध कर छोटी-छोटी पोटली बना
कर रक्षा विधान से अभिमंत्रित करके वर/कन्या व पारिवारिक जनों की कलाई पर बांधी जाती
है।
इसी समय वर /कन्या के हाथ पर कंकण भी बांधा जाता है।
कंकण बनाने के लिए एक ताम्बे के तार पर, छल-छिद्र तथा बुरी नजर से रक्षा हेतु, कौड़ी, हल्दी की
गांठ, पीली राई आदि बाँध कर तार को पीले कपडे की कतरनों व मौली लपेट कर अच्छी तरह
ढक दिया जाता है। वधु गृह प्रवेश पर संपन्न होने वाली पूजा के बाद वर को वधु के
हाथ और वधु को वर के हाथ का कंकण खोलना होता है। अतः दोनों ही पक्ष कंकण इस तरह
बनाते हैं कि उसे खोलने में कठिनाई हो। यह हास-परिहास के लिए किया जाता है। जो
पक्ष शीघ्रता से कंकण खोल देता है उसे जीता हुआ समझा जाता है।
Bride on Horse. Pic by Shri Vimal Panwar.
सेहरा बंदी / सेहरा भेंट / बारात प्रस्थान बारात प्रस्थान की तैयारी के साथ-साथ सेहराबंदी का कार्यक्रम
होता है। वर के साथ-साथ सेहरे का पूजन
करके मामा या पिता द्वारा वर के सर पर सेहरा बाँधा जाता है। इस अवसर पर सभी नाते
रिश्तेदार, मेहमान, बाराती सेहरे की भेंट में रुपये/आभूषण आदि देते हैं जिसे सेहरा-भेंट कहते हैं। रात को गाँव भोज का आयोजन किया
जाता है। फिर मंडाण (ढ़ोल सागर के बोलों के साथ ढोली
द्वारा देव व वीर गाथाओं के जागर गाना) लगता
है और लोग ढ़ोल दमाऊँ की थाप और मशक की धुन पर सारी रात जी भर कर नाचते है।
अगले दिन प्रातःकाल बारात प्रस्थान करती है। आमतौर पर
दूल्हे को पीली अचकन व् पीली धोती पहनाई जाती है और दुशाला ओढ़ाया जाता है। दुशाला
एक बड़ा सा कढ़ाईदार शॉल होता है जिसे तिकोना मोड़ कर दूल्हे की पीठ व कन्धों पर रख
कर सामने से पिन लगा दी जाती है। दूल्हे को पालकी या डांडी/पीनस पर तथा दुल्हन को
डोली पर बैठा कर ले जाते हैं जिसे कहार या गाँव के युवक उठाते हैं। राह में
अनिष्टकारी शक्तियों/ऊपरी हवा/नजर से बचाव हेतु पालकी/डोली में खुखरी अथवा तलवार
भी रखी जाती है। साथ में शक्ति का प्रतिक घोड़ा भी चलता है। जन-मान्यता है की घोड़े
के साथ रहने से किसी छल-छिद्र का असर नहीं होता। अति संकरे रास्तों पर दूल्हा घोड़े
पर बैठता है। पुरोहितजी व राज-पौणा (मुख्य
पाहुना-दूल्हे के मामा) घोड़े पर सवारी करते हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों के अति
दुर्गम रास्तों पर तो दुल्हिन को भी घोड़े पर बैठाया जाता है। हर घर से कम से कम एक
बाराती अवश्य होता है, यह सामाजिक बाध्यता है।
Barat with DOLI.Pic by Dr Kushal Bhandari.
बारात के आगे लाल झंडा और पीछे
सफ़ेद झंडा लेकर दो युवक चलते है। इनके आगे चार सैनिक वेशधारी युवक, जिन्हें सरैय्याँ कहते हैं, हाथों में ढाल तलवार लेकर
ढोल की थाप पर युद्ध कौशल दिखाते, नृत्य करते हुए चलते हैं। बारात जब दुल्हन को लेकर
वापस आती है तब सफ़ेद झंडा आगे व लाल झंडा पीछे
कर दिया जाता है। यह प्रथा एक प्रकार से पौराणिक युग/पूर्व काल में राजाओं द्वारा
स्वयंबर/युद्ध में जीतकर दुल्हन को लाने के अवशेष के रूप में देखी जा सकती है। किन्तु
अब यह प्रथा लुप्तप्राय होती जा रही है।
पहाड़ी रास्तों पर चढ़ाई, उतराई, समतल, नदी तट, पुल आदि से बारात
के गुजरने पर ढोली अलग-अलग ताल पर ढ़ोल बजाते हैं। इन तालों के अलग अलग नाम हैं।
दुल्हन के गाँव के निकट पहुँचने पर किसी समतल ऊंची जगह पर बारात विश्राम करती है। यहाँ ढोली, शब्द (तीव्र गति में
ढोलसागर के बोलों के साथ आनंदातिरेक में ढ़ोल बजाना) बजा कर वधू पक्ष के ढोली को संकेत
देता है कि बारात पहुँच गई है और पूछता है की क्या
स्तम्भ पूजन संपन्न हो गया है? वधु पक्ष का ढोली ढोल बजा
कर यथानुसार उत्तर देता है। यहां प्रचलित मान्यतानुसार वेदी के स्तम्भ पूजन अर्थात
वेदी में समस्त आवाहित देवताओं के पूजन के पश्चात ही बारात वधू गृह में प्रवेश करती
है। अतः उसका संकेत पाकर ही बारात वधू गृह की ओर प्रस्थान करती है। ढोल की भाषा का यह व्याकरण अत्यंत रोमांचक व चमत्कारी है।
बरात अदरना
इस समय तक संध्या घिर चुकी होती है अतः गाँव के कुछ युवक ढ़ोल
का शब्द सुन कर यहाँ पर प्रकाश हेतु गैस के हंडे (patromax) आदि साथ लेकर
बारातियों का स्वागत करने पहुंच जाते हैं। इसे बारात
अदरना (आदर करना) कहते हैं। ये लोग बारात को लेकर गाँव के पंचायती चौक या
किसी अन्य व्यक्ति के आँगन (जनवासा) में पहुँचते हैं जहां बारातियों का जलपान आदि
से सत्कार किया जाता है। इसके बाद दूल्हे को खड़ाऊँ पहना कर पुनः पालकी पर बैठा कर
अथवा वधू के परिजनों द्वारा गोदी में उठा कर वधू गृह तक ले जाया जाता है। इसी अवसर
पर सालियों द्वारा जूते चुराने की परंपरा हैं।
धूलिअर्घ/मधुपर्क
घर के द्वार पर बारात के स्वागतार्थ 3/5 कन्याएं सर पर,
शगुन सूचक, पुष्प व आम्र पत्र युक्त जल कलश लेकर समस्त परिजनों व दुल्हन पक्ष के
पंडित जी के साथ खडी रहती हैं। वर पक्ष के लोग जल कलशों में कुछ सिक्के डालते हैं
और कन्याओं को भेंट में कुछ धन राशि देते हैं। कन्या पक्ष के पंडित जी वर पक्ष के
पंडित व वर का पाद्य, अर्घ्य व् आचमन से पूजन करते हैं और बारातियों के ऊपर जल कलशों का जल सिंचन करते हैं तथा माल्यार्पण भी करते
हैं। इस रस्म को धूलि अर्घ्य कहते हैं।
दरअसल, परंपरागत रूप से बारात संध्याकाल में, गोधूली के समय, कन्या गृह पर पहुंचती
थी। अतः देवी संध्या (गढ़वाल में संध्या की देवी रूप में पूजा की जाती है) व गोधूलि
को भी अर्घ्य दिये जाने की परंपरा है। यह एक प्रकार से बारातियों का शुद्धिकरण भी है,
क्योंकि बरात दूर गाँव से आती है अतः रास्ते की धूल, ऊपरी हवा आदि भी उनके साथ आती
है, इसलिए मंत्रोच्चार के साथ उनके ऊपर जल से मार्जन/प्रोक्षण करना हि धूलिअर्घ्य
का उद्देश्य माना जा सकता है। इधर मंगलेनी स्त्रियाँ माँगल गायन करती हैं.
जणदो नि छौ मि पछणदो नि छौ मि, कै देण धूळी अरघ, कै
देण धूळी अरघ…
जैको होलो जैको होलो मखमली जामो,कानू कुंडल, साल-दुसालो,
जैकी होली जैकी होली सीरा पगड़ी, हाथु कंगण, पाँव खड़ाऊँ,
वीई होलो धिया को धुमैलो, वेई देण धूळी अरघ, वेई देण शंख की पूजा...........
लड़की के पिता पूछते हैं की धूलि अर्घ्य किसे देना है। (गढ़वाल में आजसे पहले वर,
दुल्हन के परिजनों से नहीं मिला होता है, यह इसी तथ्य का संकेत है। हालांकि अब स्थिति बदल
चुकी है और शहरी/अर्ध शहरी क्षेत्रों में तो सगाई की रस्म में अब वर भी कन्या के
घर जाता है) माँगल गायिकाएं उत्तर देती हैं की जिस ने मखमली जामा पहना होगा, जिसके
सर पर सेहरा व पगड़ी होगी, जिसके पैर में खडाऊं होंगे, कानों में कुंडल होंगे
..................वही हमारी कन्या का स्वामी होगा, उसी को धूलि अर्घ्य और शंख
की पूजा देनी है। इसके बाद बारात विवाह मंच पर प्रवेश करती है। वर को एक ऊंचे आसन
पर काष्ठ चौकी पर खड़ा करके वर-नारायण का पूजन किया जाता है।
Dhooliargya
बधू का पिता वर व पंडित जी के पैर प्रक्षालन करता है। वर को
आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन दिया जाता है। अब अर्घ्य जल से वधू का पिता वर के आँख, कान, मुंह, हाथ, कटि, पैर आदि अंगों का
स्पर्श करता है। साथ-साथ पंडित जी मंत्रोच्चार करते रहते हैं। नसोर्मे:
प्राणरस्तु:, चक्षोर्मे: ज्योति रस्तु:, मुखोर्मे: तेज रस्तु:, कर्णोर्मे: श्रोत्रमस्तु:, बाव्होर्मे:
बलमस्तु:, ऊर्वोर्मे: ओजरस्तु:.....ऐसा करते हुए वधू का पिता ब्रह्मा (पंडित) की
उपस्थिती में सर्व समाज के सम्मुख यह पुष्टि करता है और कन्या को भी संतुष्टि देता
है कि उसने अपनी कन्या के लिए पूर्णतः स्वस्थ्य एवम पूर्ण पुरुष का चयन किया है।
अब वर को पुष्टिकारक मधुपर्क
पीने के लिए दिया जाता है। वर तीन बार अंगुष्ठ व अनामिका से मधुपर्क का परीक्षण
करके मधुपर्क पीता है और जो बच जाता है उसे ईशान दिशा में भूमि पर गिरा दिया जाता
है।(मधुपर्क-एक कांस्य पात्र में, 12 तोले दही में 4 तोले शहद या 4 तोले घी मिला कर बनता है। संस्कार विधि- दयानंद
महर्षि, पृष्ठ 123, पारस्कर गृह्य सूत्र 1/3/1-2, 1/3/6) यहाँ कन्या का पिता वर व
पंडित जी को चौकी, वस्त्र व दक्षिणा भेंट करता हैं। बारातियों का घर के आँगन या
पंचायती चौक के प्रांगण में स्वागत सत्कार किया जाता है। प्रांगण के चारों ओर व
आस-पास के घरों के छज्जों पर गाँव की स्त्रियाँ व युवतियां बैठी रहती हैं और बारातियों
से खूब हास परिहास करती हैं। स्त्रियाँ, खास तौर पर बारातियों के भोजन जीमते हुए, मांगल गाकर
गालियाँ देती हैं। यह प्रथा पौराणिक युग से चली आ रही है। मानस में तुलसीदास जी ने श्रीराम के विवाह में इस प्रकरण का संकेत किया है। “जेंवत देहीं मधुर धुनि गारी, लै लै नाम पुरुष अरु नारी ”
औण कू त ऐ छा पौणा, मांजी क्यों नि ल्हाये.
ल्हौण कू त ल्है छा पौणा, धुनारूँ न लूटे।
एक नारी पूछती है, अरे पाहुनों तुम तो आये पर अपनी माँ को साथ क्यों नहीं लाये। दूसरी उत्तर देती है, कि लाये तो थे पर रास्ते में केवटों द्वारा लूट ली गई है। बरातियों को खाना खिलाते समय भी इसी प्रकार हास्य विनोद का पुट लिए वार्तालाप द्वारा मनोरंजन चलता रहता है।
भात देन्द पौणा कड़छी लाँद दीठ, हमन नि जाणे ल्वार को जायो।
मिठै देन्द पौणा पुड़खी
लाँद दीठ, हमन नि जाणे हलवै
को जायो।
बर-डाली
कन्या के घर पर एक कक्ष में कन्या के परिजन कन्या सहित बैठ
होते हैं। वर परिवार के लोग वर के साथ, अलग-अलग थालियों में सूखे मेवे - बादाम किशमिश,
काजू, छुआरा, नारियल, मिश्री, मिठाई, फल, कन्या के लिए वस्त्र, गहने, आदि भेंट लेकर कक्ष में
पहुँचते हैं। यह सामग्री समस्त बिरादरी को दिखाई जाती है। इसे वर-डाली कहा जाता है। इसी भेंट से वर पक्ष की
प्रतिष्ठा/हैसियत आंकी जाती है। कन्या के पिता सभी को टीका करके दक्षिणा देते हैं।
अब वर व कन्या के बीच में एक पर्दा कर दिया जाता है जिसे अंतरपट कहते हैं। वर पक्ष
के लोग कन्या को देखने का आग्रह करते है। कन्या पक्ष के लोग कन्या को
सरस्वती/लक्ष्मी स्वरूप बताते हुए वर को व्यंग्य से कुरूप बताते हुए मना करते हैं।
इस व्यंजना को महिलायें माँगल गान से प्रकट करती हैं।
खोली देवा, खोली देवा, तै धौड़ पड़दा, देखूं मैं कन्या को रूप-2
हमारी कन्या च सरसुती सरूप, लछमी सरूप, तुमरो बनड़ा च निपट कुरूप,
बनड़ा परैं लगे जेठ की धूप.....
अब गोत्राचार होता है। वर व कन्या पक्ष के पंडित एक दूसरे से कन्या व वर के गोत्र, प्रवर, कुल एवं परिवार की तीन पीढ़ियों के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं और तदनुसार उत्तर देते है। यह प्रक्रिया तीन से पांच बार दोहराई जाती है। यहाँ दोनों पक्ष के पुरोहितों के मध्य वैदिक मंत्रोच्चार की प्रतिस्पर्धा होती है जिसे सुन कर विलक्षण आनंद आता है। तत्पश्चात कन्या की भाभी या कोई सुहागिन नारी कन्या को वर पक्ष द्वारा लाये गए वस्त्राभूषण पहनाती है। नथ कन्या के मामा द्वारा भेंट की जाती है जिसे मामी पहनाती है। यह गढ़वाली विवाह संस्कार की महत्वपूर्ण रस्म है। इसके
बाद कन्यादान की रस्म होती है। दोनों पंडित कन्यादान महा-संकल्प के वैदिक मंत्रो
का उच्च स्वर में उच्चारण करते हैं जिसकी प्रक्रिया 10 से 15 मिनट की होती है।
KANYADAN MAHASANKALPकन्यादान
कन्या का पिता हाथ में जनेऊ के साथ शंख रखता है साथ में कन्या
का अंगूठा भी शंख पर रखा जाता है। शंख के अंदर भगवान विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा भी
रखी जाती है। कन्या की माता एक कलश से दुग्ध मिश्रित जल की धार शंख में छोड़ती है
जो शंख से होकर कांसे की थाली में गिरती है। (कहीं कहीं कन्या का अंगूठा
थाली में टिका देते हैं जिसके ऊपर जलधार छोड़ी जाती है) यह प्रक्रिया महा-संकल्प के
उच्चारण के दौरान अनवरत जारी रहती है। इधर माँगल गायिकाएं गाती है।
दे देवा बाबाजी, दे देवा बाबाजी कन्या को दान, दे देवा बाबाजी कन्या को दान ए....
अन्नदान, धनदान सब कोई देला, तुम देल्या बाबाजी कन्या को दान ए.....
तुम व्हेल्या बाबाजी पुण्य का भागी ए ....
पाणिग्रहण
महासंकल्प के अंतिम चरण में वर-कन्या के बीच का पर्दा हटा
दिया जाता है। कन्या का पिता कन्या का अंगूठा शंख सहित वर के हाथ में ससंकल्प
सौंप देता है। माता-पिता की आँखों से कन्या के विवाह का सुख और विछोह का दुख अश्रु-धार
बन कर छलक पड़ता है। अपनी पली पलाई कन्या का दान शास्त्रों में सबसे बड़ा दान कहा
गया है। यह क्रिया पाणि-ग्रहण
कहलाती है। पंडित कमलेश्वर प्रसाद डिमरी कन्या का अंगूठा वर को पकड़ाने के संबंध
में तर्क देते हैं कि अंगूठा हाथ का सर्व श्रेष्ठ अंग है। उँगलियाँ, अंगूठे की सहायता
के बिना कोई भी काम सम्पन्न नहीं कर सकती हैं, अतः अंगूठा श्रेष्ठता का
प्रतीक है। यूं अंगूठा अहंकार का भी प्रतीक है और अंगूठा पकड़ाने का अर्थ कन्या
द्वारा अपना पूर्ण समर्पण भी कहा जा सकता है।
PANIGRAHAN इसके पश्चात कन्या पक्षके
पुरोहित वर पक्ष को महासंकल्प का कलश सौंपते हैं और वर के पिता उन्हें दक्षिणा
देते हैं जिसे कलश-कंटेलो(कलश-कर) कहते हैं। अब वर व कन्या की कमर में एक-एक पीला
वस्त्र, बांधा जाता है
जिनके दूसरे सिरों पर सुपारी, सिक्के, हल्दी की गाँठ, सरसों के दाने, यज्ञोंपवीत व
गंधाक्षत बांधे जाते है। इन्हें अंचल-ग्रंथ कहते हैं। पंडित विष्णु प्रसाद भट्ट, लक्ष्मी नारायण
मंदिर, आराघर, देहारादून के अनुसार पंडित जी द्वारा मंत्रोच्चार के साथ कन्या पक्ष
की कोई सुहागिन पुत्रवती नारी इन दोनों ग्रन्थों को आपस में बांधती है। इसमें बंधी
सुपारी लक्ष्मी-गणेश की प्रतीक मानी जाती है जिन्हें गंधाक्षत, यज्ञोंपवीत आदि
समर्पित करके इस विवाह के साक्षी रूप में आमंत्रित किया जाता है। यह क्रिया
ग्रंथि-बंधन कहलाती है।
इसके बाद एक कांसे की
थाली में मेवे, श्रीफल, दाड़िम, बिजोरा(नींबू), केला व अन्य फल वधू की गोद में रखे जाते हैं और
सुहागिन स्त्री कन्या व वर के हल्दी-हाथ के समय निकाले गए छोल्का (छोलिका- हल्दी
और चावल) को ग्रंथि के ऊपर, सात बार, वारकर वधू की गोद में भरती है। यह विधि वधू के उत्कृष्ट
सन्तानवती होने की कामना से अभिप्रेत है। इसे छोलिका भरण कहते है।
CHOLIKA BHARAN
अब कन्या को मुकुट पहनाया जाता है और लक्ष्मी रूप में कन्या का पूजन होता है। यहाँ कन्या के माता-पिता की रात्री लग्न की भूमिका समाप्त हो जाती है। इसके बाद फेरे व सप्तपदी होती है
अग्नि स्थापन, फेरे(भांवरें) और सप्तपदी
कक्ष से बाहर आकर कन्या को वेदी पर वर की दाहिनी ओर बैठाया
जाता है और वेदी में अग्नि स्थापन किया जाता है। अग्नि को प्रत्यक्ष देव माना गया
है। वह शक्ति, चेतनता व सत्य की भी प्रतीक है। वेदों में अग्नि को भोजन के लिए
नियंत्रक (ऋ. 5/26-3) तथा अन्न्दात्री (ऋ. 5/6-4) कहा गया है अतः उसको समस्त
कार्यों के आरम्भ में अतिथि के रूप में आमंत्रित किये जाने की परम्परा है। इसी
वैदिक परम्परा का अनुसरण करते हुए मंत्रोच्चार द्वारा पवित्र अग्नि का आह्वान कर
उसे साक्षी बना विवाह संपन्न किया जाता है। इस हेतु माँगल गायिकाएं गाती हैं।
ऐजा अगनी, ऐजा अगनी मेरा मातुलोक, मेरा मातुलोक बरमा भूको रैगे......
कनु कैकी औलो, कनु कैकी औलो तै मतुलोक, तै मातुलोक बड़ो अत्याचार.....
तै मातुलोक,मीतें
लत्याला, जूठ जुठाला, कनू कैकी औलों तै मातुलोक.....
ऐजा अग्नि ऐजा अग्नि मेरा मातु लोक, त्वे तैंई अग्नी पैली भोग लागौलो....
अर्थात, हे अग्नि देव मेरे मातृ लोक में पधारो तुम्हारे
बिना ब्राह्मण देवता भूखे रह गए है। अग्निदेव भूलोक में आने में संकोच करते है,
क्योंकि पृथ्वी पाप युक्त है। अग्निदेव कहते हैं मैं कैसे आऊँ, तुम्हारे मातुलोक
में बहुत आत्याचार होते हैं, लोग मुझ पर थूकेंगे, जूठन डालेंगे, पैरों से अपवित्र
करेंगे। पुनः आग्रह होता है कि आप आयें हम पहला भोग आप को ही लगाएंगे। यहाँ
ब्रह्मा के भूखे रहने से तात्पर्य यही है की अग्नि के बिना जीवन संभव नहीं है।
अब मंत्रोच्चार के साथ सात फेरे होते हैं। वैदिक विधि में पहले
तीन फेरों में कन्या आगे चलती है और बाकी चार फेरों में वर आगे चलता है। किन्तु यहाँ
की परम्परा से छः फेरों में कन्या आगे चलती है और सातवें फेरे में वर आगे चलता है।
इस समय भी माँगल गायन होता है।
प्रत्येक फेरे से पहले लाजा-होम होता है। कन्या का भाई एक
सूप से कन्या की अंजलि में लाजा-खील (धान के खील) डालता है, जो कन्या व वर की
अंजलि से होते हुए यज्ञ कुंड में होम किए जाते है। इसे लाजा
होम कहते हैं।
Laja Homइसके माध्यम से देवताओं से प्रार्थना की जाती है कि हे देव,
आपको यह पवित्र हविष्यान्न अर्पित कर रहे हैं, आप वर- वधू का जीवन सदा
धन-धान्य से परिपूर्ण रखना। फेरे लेते समय परिक्रमा पथ में, उत्तर दिशा में
रखे सिल बट्टे पर, वधु बट्टे के ऊपर अपना दायाँ पैर रखती है और वर अपना बायाँ
हाथ वधू के बाएँ कंधे पर रखते हुए अपने दायें हाथ से वधू के पैर को बट्टे सहित सिल
पर आगे बढ़ाता है इसे शिला-रोहण कहते हैं।
पंडित हर्षमणि घिल्डियाल
के अनुसार यह इस बात का प्रतीक है कि जीवन पथ में कितने भी कष्टों के पहाड़ क्यों न आ जाएँ हम मिल कर उन्हें
पार करेंगे और हर कठिनाई में सुमेरु कि तरह स्थिरमती से जीवन निर्वाह करेंगे। छठे
फेरे में सिल पर दही, उरद व चावल के मिश्रण के ऊपर सरसों के तेल में भीगी रुई की
सात बत्तियाँ जला कर रखी जाती है और वर पूर्ववत वधू के कंधे पर बायाँ हाथ रख, दायें हाथ से वधू
के पैर को बट्टे पर रगड़ते हुए एक-एक कर छह बत्तियाँ बुझाता हुआ (यह बली विधान का
संकेत है) पंडित जी द्वारा मंत्रपाठ के अनुसार वधू
से छः वचन कहता है।
SAPTPADI
हे वधू, ऐश्वर्यके लिए एकपदी हो, ऊर्ज्व के लिए द्विपदी हो, भूति के लिए
त्रिपदी हो, समस्त सुखों के लिए चतुष्पदी हो, पशु सुख(दूग्ध, घृत, अन्न) के लिए
पंचपदी हो, ऋतुओं के सुख(ऋतुएँ हमारे अनुकूल हों, सभी ऋतुएँ अपने समय में
समस्त सुख प्रदान करें) के लिए षटपदी हो। अब पुरोहितजी सातवीं बत्ती वर-वधू के सिर
के ऊपर घुमा कर वेदी में प्रज्वलित दीपक में रख देते हैं। यह वर-वधू के भावी जीवन
में प्रकाश एवं चहुंमुखी उन्नति हेतु स्तवन की प्रतीक है। अब वर की ओर से सातवाँ
वचन कहा जाता है, हे सखी मुझ से सखा भाव के लिए तुम सप्तपदी होओ।
यहाँ प्रतिज्ञा की जाती है की सात जन्मों तक अग्नि
में जलने (मृत्यु) के बाद भी हमारा बिछोह न हो। वर वचन देता है की वह वधु
के हर कदम पर आने वाली बाधाओं को दूर करने में साथ रहेगा। इसके बाद वर कन्या से
आगे चलता है। यहाँ वर द्वारा फेरों में अड़ने की भी प्रथा है। वर के अड़ने पर वधू के
पिता/भाई वर को कोई उपहार देकर मनाते हैं तब वर आगे चलता है। कहीं-कहीं वधू भी अड़
जाती है तब वर के पिता वधू को कुछ उपहार देकर आगे बढ़ने के लिए मनाते हैं। यह एक
परंपरा है जिसमें हास परिहास का भाव ही ज्यादा रहता है। यहाँ उपहार का मूल्य
ज्यादा अहमियत नहीं रखता।
सातवें फेरे के बाद सात प्रतिज्ञाएँ होती है। हम आपस में कुछ
नहीं छुपायेंगे, वर कहता है वधु तुम परिवार में साम्राज्ञी की तरह रहो अर्थात
परिवार के हर सदस्य से तुम्हारा ऐसा स्नेह रहे की वे सब तुम्हें रानी बना कर रखें,
हम आपस में जल और वायु की तरह एकाकार हो जाएँ, तुम उत्तम संस्कारवान पुत्र उत्पन्न
करो, ऋतुएं हमारे अनुकूल हों और हम सद्आचरण करते हुए परिवार व समाज को सुद्रढ़ करें।
अंत में वर, वधु को दिन के लग्न में सूर्य तथा रात्री लग्न में ध्रुव का दर्शन कराता है। इसके
मूल में सूर्य/ध्रुव से आयुष्य, तेजस्विता व स्थिरमति से दांपत्य जीवन की सतत प्रगति
की कामना है।
अब वधु अर्धांगिनी हो गई है, अतः वधू, वर के वामाङ्ग वेदी
पर बैठती है। वर, वधु की मांग में सोने की अंगूठी से स्थिर सुहाग का प्रतीक
सिन्दूर भरता है। अब जूठो-बिठो यानी एक दूसरे
को अपना जूठा मिष्ठान्न खिलाते हैं। पुरोहितजी वैवाहिक जीवन सम्बंधी यथोचित उपदेश
करते हैं तथा कुछ विश्राम के बाद ब्राह्मण को गाय दान, वर वधु को शय्या दान व
समस्त परिजनों द्वारा आशीर्वाद की रस्म पूरी होती है। वर, वधु के परिजनों के पैर
छूकर उनके पैरों में कुछ रुपये भेंट रखता है। इस रस्म को सास
भेंट कहते हैं। वधु के परिजन उससे दुगुनी राशि वर का टीका करके उसे भेंट
देते है।
सुबह चाय नाश्ते के बाद फ़ौड़ का आयोजन होता है। वधू पक्ष, बारातियों के लिए गाँव के निकट किसी जलश्रोत के
आस-पास दोपहर के भोजन का इंतजाम करता हैं। बारातियों को भोजन बनाने के लिए आवश्यक
राशन, सब्जी, मसाले, घी, आदि तथा भोजन पकाने के बर्तन उपलब्ध करा दिये जाते हैं। उनके साथ एक-दो सरोला
ब्राह्मण व 2-3 काम करने वाले पुरुष/युवक भी कर दिये जाते हैं ये लोग नियत स्थान
पर जाकर, प्रकृति के प्रांगण में उल्लास उत्साह के साथ खाना बना कर दोपहर का भोजन करते
हैं। इसे फ़ौड़ खाना कहते हैं।
यह एक प्रकार से अपने गाँव से दूर, दूसरे गाँव में एक पिकनिक
की तरह का मनोरंजन होता है। दोपहर बाद बाराती वधू गृह/जनवासे पर पहुँचते हैं इसके
बाद विदाई की बेला आती है। वधू के माता-पिता, अन्य परिजन, सखियाँ आदि वधु के विछोह
के वियोग में करुण क्रंदन के साथ विलाप करते हुए, उसे भेंटते हुए, अश्रुपूर्ण विदाई
देते हैं। वधु नये जीवन में कदम रखते हुए हर्षोंल्लास व परिजनों से बिछोह के विरह
में चीत्कार कर उठती है। पहाड़ों में पर्वत के पीछे दूसरे गाँव में नितांत अनजान
लोगों के साथ जीवन कैसा बीतेगा? अकेली कैसे रहेगी? ऐसी आशंकाओं में घिरी बेटी
बाबुल से प्रार्थना करती है की छोटे भाई/बहिन को उसके साथ कम से कम एक-दो दिन के
लिए भेज दें। वधू की यह भावना मांगल गीत में साकार हो उठती है।
काला डांडा पोर बाबाजी काली च कुयेड़ी, यखुली यखुली मीं लगदी च डैर.. ए...
अगनाई होला बेटी सकल जनीत, पछनै भेजलु हस्ती, घोड़ा, कामधेनु।
त्वे तईं मेरी लाडी यखुली नि भेजूं,
त्वे दगड़ा जाला लाडी तेरा दिदा भुला..ए...
इस करुण विलाप के साथ ही अब बरात वापस चल पड़ती है। वर के गृह द्वार पर वर की स्वागतोत्सुक बहिनें उनका रास्ता रोकती हैं तब वर उन्हें कुछ भेंट देकर वधु को लेकर अन्दर प्रवेश करता है। फिर कुलवधुएँ कक्ष में आकर वर-वधू की मंगल आरती करती हैं।
छणवा छणवा आटा का दिवडा बणाया करो रम्भा सेळी आरती.
ऐगैने मादेव गौराजी बिवैकीऐगैने विशनुजी लछमी बिवैकी.
जौ जस देनी खोली का गणेशजौ जस देनी मोरी का नारैण.
जौ जस देनी भूमि का भूम्याल, जौ जस देनी इष्ट-कुल देवा.
यो शुभ कारिज सुफल निभिगे, या हल्दी सी जोड़ी सुफल फल्यान,
कंकण खेलना
कंकण खेलना
वर-वधु को पूजा स्थल पर ले जाकर पंचदेव पूजनोपरांत कंकण
खोले जाते है। दूध मिश्रित पानी से भरे बर्तन में वर-वधु के कंकण डाल कर वर-वधु से
कंकण ढूँढने के लिए कहा जाता है। जो पहले कंकण ढूंढ लेता है माना जाता है घर पर
उसी का प्रभुत्वा रहेगा हालांकि इसमें हंसी विनोद का भाव हि मुख्य रहता है। इसके
बाद भगवान् सत्य नारायण की कथा संपन्न होती है और विवाह सफलता पूर्वक संपन्न
करवाने के लिए सभी देवताओं/पित्रों का आभार व्यक्त करते हुए उनसे अपने अपने लोक
हेतु प्रस्थान करने का आग्रह किया जाता है, इस प्रार्थना के साथ कि
शीघ्र हि हमारे घर कोई शुभ कार्य हो जिसमें हम आपको पुनः आमंत्रित कर सकें। श्री
गणेश व श्री लक्ष्मी जी से आग्रह किया जाता है की वे सदा हमारे घर में निवास करें।
फिर वधु की मुंह दिखाई होती है।
घर परिवार की स्त्रियाँ वधु को मुंह दिखाई में वस्त्राभूषण
देती हैं औए वधू भी सभी को पितृ गृह से प्रदत्त वस्त्र व दक्षिणा देती है। तत्पश्चात
समूह भोज के साथ समारोह संपन्न होने के बाद सभी लोग स्वग्रह को प्रस्थान करते है।
पलूण / द्वारबाठा / द्विरागमनवधु गृह प्रवेश के एक अथवा दो दिन बाद, पंडित जी द्वारा
निश्चित किए गए शुभ लग्नानुसार वर, वधू को लेकर ससुराल जाता है। ससुराल में सत्यनारायण
की कथा सम्पन्न होती है और एक दो दिन वहाँ विश्राम के पश्चात वर-वधू वापस अपने घर
आते है। उनके साथ ससुराल पक्ष से कल्यो-कंडी (कलेवा- रोट व अरसे) तथा दूण-दैजो
(1-2 द्रोण चावल) भी डोटियालों के साथ भेजे जाते हैं। यह गढ़वाली विवाह पद्धति का
अंतिम चरण है जो पलूण के नाम से जाना जाता है। शहरों में इसे द्विरागमन कहते हैं। शहरी क्षेत्रों में तो सामान्यतः द्विरागमन, बारात विदाई से कुछ देर पहले विवाह स्थल पर ही सम्पन्न कर दिया जाता है। II इतिसिद्धम II
Author is from Pauri Garhwal, is a MCom, M.A. Theatre and holds a Diploma in Folk Music. He has published Research papers on Yaksh Cult in Garwhal, Ramman (a form of Ramayan Ritual in local dialect coupled with Mask Dance). Currently, he is working on Folk Rituals of Garwhal area of Uttarakhand.
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