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कुमाऊं अंचल में पारम्परिक विवाह प्रथा

Kumaoni Wedding Var & Vadhu. Note Ganesha & Radha Krishna on head

उत्तर भारत में स्थित उत्तराखण्ड राज्य का पूर्वी क्षेत्र प्रशासनिक दृष्टि से कुमाऊं कमिश्नरी के नाम से जाना जाता है।इस कुमाऊं कमिश्नरी में वर्तमान में अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ, चम्पावत़ नैनीताल एवं उधमसिंह नगर जनपद शामिल हैं। भौगोलिक संरचना के हिसाब से जनपद उधमसिंह नगर मैदानी क्षेत्र में तथा शेष अन्य जनपद पूरी तरह पर्वतीय भू-भाग में आते हैं। कुमाऊं डिविजन के जनपद पिथौरागढ के धारचूला तहसील के रंङ बोली क्षेत्र, मुनस्यारी तहसील के जोहारी बोली क्षेत्र,डीडीहाट तहसील के राजी बोली क्षेत्र और जनपद उधमसिंह नगर के खटीमा व सितारगंज तहसील के थारु बोली क्षेत्र तथा बाजपुर तहसील के बुक्सा बोली क्षेत्र को छोड़कर शेष भाग में कुमाउनी भाषा बोली जाती है। कुमाउनी भाषा-बोली बहुल इसी क्षेत्र को एक सांस्कृतिक इकाई मानते हुए लेखक द्वारा ‘कुमाऊं अंचल में पारम्परिक विवाह प्रथा’ शीर्षक से आलेख लिखने का प्रयास किया गया है। यहां स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि कुमाऊं अंचल शब्द का आशय मूलतः उस परिक्षेत्र से है जहां प्रचुर मात्रा कुमाउनी भाषा बोली जाती है और सामाजिक और सांस्कृतिक रुप से जहां एकसमान विशेषताएं मिलती हैं।

पुरातन काल से ही भारतीय हिन्दू समाज में विवाह को जीवन का एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है। विवाह स्त्री-पुरुष का मिलन मात्र नहीं अपितु एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जहां से मानव वंश को आगे बढ़ाने,पारिवारिक दायित्वों की पूर्ति करने और जीवन के विविध आयामों से जुड़ने की शुरुआत होती है। कुमाऊं अंचल में प्रचलित वैवाहिक प्रथा के सन्दर्भ में यदि हम बात करें तो हम पाते हैं कि यहां सामाजिक वर्ण-व्यवस्था के अनुरुप वैवाहिक सम्बन्ध और विवाह पद्धतियां प्रचलित रही हैं और सामान्य अन्तर और विविधता के साथ कमोवेश आज भी चलन में हैं। यदि 1920 से पूर्व और उसके समकालीन समय की बात की जाय तो तत्कालीन कुमांऊ अंचल में परम्परागत तौर पर तीन तरह के वैवाहिक सम्बन्ध प्रचलित थे (पन्नालाल,आई.सी.एस,1920,सरकारी अभिलेख)। जिनका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

(क) विवाह संस्कार वाली पत्नी: लोगों के समक्ष जब किसी महिला को पत्नी बनाने के लिए अनुष्ठान, संस्कार तथा स्थानीय रीति-रिवाज के साथ विवाह किया गया हो भले ही व अनुष्ठान किसी भी प्रकृति का हो। कुमाऊं अंचल में इस तरह का वैवाहिक सम्बन्ध सर्वाधिक प्रचलन में है। 

(ख) ढांटी: किसी दूसरे ब्यक्ति की पत्नी जो सधवा या विधवा हो अथवा पति से परित्यक्त की गयी हो, जब कोई अपनी पत्नी के रुप में उसे घर ले आता है तो वह ढांटी कहलाती है। खास बात यह है कि ढांटी को बिना विवाह संस्कार किये रखैल की तरह रखा जाता है। प्रथानुसार इसमें पूर्व पति अथवा निकटस्थ परिवार वालों को दाम चुकाना जरुरी समझा जाता है। 

(ग) टेकुवा: जब कोई महिला खासकर विधवा किसी पर पुरुष को पति के तौर पर अपने घर में रख लेती है तो उस पुरुष को टेकुवा, कठवा या हल्या कहा जाता है और इस तरह के सम्बन्ध को कुमांऊ अंचल में टेकुवा की संज्ञा दी जाती है।

बुर्जुग लोगों के कथानुसार आज से आठ दशक पूर्व तक कुमांऊ के समाज में ढांटी, टेकुवा दामतारो विवाह सम्बन्ध देखने में आते थे जो प्रायः अब नहीं दिखायी देते। आर्थिक रुप से विपन्न परिवार जब अपनी कन्या का विवाह करने में असमर्थ रहता था तब वह वर पक्ष के परिवार से कन्या का दाम लेता था और फिर कन्या का विवाह किया जाता था। यह विवाह दामतारो विवाह  कहलाता था। सामाजिक-आर्थिक बदलाव और शिक्षा जागरुकता के प्रचार-प्रसार से यहां का समाज अब विवाह के उन पुराने तौर-तरीकों से निरन्तर विमुख होने लगा है जिनकी प्रासंगिकता आज के विकसित समाज में किसी भी रुप में नहीं है (श्री देवकी नन्दन लोहनी,ग्राम लोहना)

कुछ दशक पूर्व कुमाऊं अंचल में बाल्यावस्था में ही विवाह कर देने की प्रथा प्रचलन में थी, परन्तु अब शिक्षा और जागरुकता और सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में बदलाव जाने से यह प्रथा लगभग समाप्त हो गयी है। दरअसल तब पहाड़ में खुला समाज था,पर्दा प्रथा नहीं थी साथ ही कृषि पशुपालन आधारित कार्यां में युवा वर्ग की अधिक भागीदारी रहती थी सो इन परिस्थितियों में गांव अथवा समीप के अविवाहित युवक युवतियां में परस्पर मेलजोल हो जाने से भावावेश के क्षणों में शारीरिक सम्बन्ध होने गर्भवती होने की सम्भावनाएं रहती थीं। इस वजह से लोग अपनी कन्या का विवाह रजो दर्शन से पूर्व लगभग12-13 वर्ष की उम्र में कर देते थे (डा. शेर सिंह विष्ट, 2009)

कुमाऊं अंचल में विवाह की मुख्यतः तीन पद्धतियां चलन में रही हैं (दीपा पाण्डे,1988)

1 'अंचल' विवाह: कुमाऊं अंचल में प्रायः अधिकंश विवाह इसी पद्धति के आधार पर किये जाने का प्रचलन है। इस तरह के विवाह में वर पक्ष के लोग बारात लेकर कन्या के घर जाते हैं। इसमें दूल्हे दुल्हन के 'अंच' को (जो पीले रंग का लम्बा पतला कपड़ा होता है)परस्पर बांध कर विवाह किया जाता है।कन्या के माता-पिता की ओर से वर पक्ष के परिवार को कन्या सौंप दी जाती है जिसे 'कन्यादान कहते हैं।'अंचल विवाह पूर्णतः वैदिक अनुष्ठान, संस्कार तथा स्थानीय रीति-रिवाज के साथ किया जाता है।

2 सरोल विवाह: कुमाऊं में इस तरह के विवाह को बढ़ा या डोला विवाह भी कहा जाता है। इस विवाह में वर पक्ष के लोगों द्धारा ढोल-बाजे के साथ और बगैर विवाह अनुष्ठान किये कन्या को अपने घर लाया जाता है तथा बाद में नियत मुहूर्त में वर के घर पर लग्न के अनुसार अनुष्ठानिक रीति से विवाह कार्य सम्पन्न किया जाता है। इस विवाह में दूल्हा-दुल्हन के सिर में मुकुट बांधने की प्रथा नहीं हैं। कुमाऊ अंचल में सरोल विवाह की प्रथा अब नहीं के बराबर दिखायी देती है।

3 मंदिर विवाह: जब दूल्हा-दुल्हन की शादी किसी मंदिर में की जाती है तो वह मंदिर विवाह कहलाता है। कुमाऊं अंचल में अलमोड़ा के चितई और नैनीताल के घोड़ाखाल स्थित गोलू देवता के मंदिर सहित कुछ अन्य मंदिरों में प्रायः ऐसे विवाह सम्पन्न होते हैं।वैवाहिक कार्यक्रम एक दिवसीय होने से इसमें जोड़े का विवाह शूक्ष्म अनुष्ठानिक रीति से ही किया जाता है जिसमें दूल्हा-दुल्हन पक्ष के लोग अनिवार्यतः उपस्थित रहते हैं।

'अंचल’अथवा वैदिक विवाह के क्रमबद्ध चरण

कुमाऊं अंचल में वैदिक रीतिनुसार सम्पन्न होने विवाह में संस्कार की भूमिका सबसे प्रधान होती है, जिसमें से पाणिग्रहण अथवा कन्यादान, सप्तपदी और अग्नि प्रदक्षिणा अथवा फेरों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है (श्री भावा जी पंडित, पुरोहित, ग्राम काण्डे) इसके अलावा कुछ छोटे-बड़े संस्कार विवाह से पूर्व और बाद में भी किये जाते हैं। विशेष बात यह है कि विवाह के सभी संस्कार वैदिक मंत्रोंच्चारण के साथ सम्पादित होते हैं। कुमाऊं अंचल में सर्वाधिक तौर पर प्रचलित'अंचलविवाह को मानक मानते हुए इसमें प्रयुक्त अनुष्ठान, संस्कार तथा स्थानीय रीति-रिवाज की विशेषताओं का उल्लेख करना उपयुक्त होगा। वैदिक रीतिनुसार सम्पन्न होने वाले वैवाहिक कार्यक्रम और उसके क्रमबद्ध चरणों का उल्लेख नीचे किया जा रहा हैं।

 

विवाह तय करना: कुमाऊं अंचल में परम्परानुसार सजातीय और समकक्षी परिवारों के मध्य ही उपयुक्त वर-वधू की तलाश की जाती है और जन्म कुडंली के मिलान अथवा चिन्ह साम्य हो जाने के उपरान्त ही विवाह तय किया जाता है जिसे यहां ब्या ठैरीगो कहते हैं। इसके बाद कुल पुरोहित द्वारा शुभ मुहूर्त में विवाह की तिथि निर्धारित कर दी जाती है जिसे लगन सुझी गो  कहते हैं।

निमंत्रण देना: विवाह की तिथि तय हो जाने के बाद वर कन्या दोनों पक्षों की ओर से अपने बिरादरों, नाते-रिश्तेदार और परिचित लोगों को निमंत्रण दिया जाता है। कुमाऊं अंचल में गांव निकट गांवों में मौखिक निमंत्रण देने की परम्परा चली रही है इसे यहां न्यूत देना कहा जाता है। वर्तमान दौर में छपाई किये हुए निमंत्रण पत्रों को हाथों-हाथ और डाक के माध्यम से भेजने का चलन भी बढ़ गया है। कुमाऊं अंचल के संस्कार गीतों में सुवा (तोता)के माध्यम से लोगों को निमंत्रण पहुंचाने (न्यूतने) का अलौकिक वर्णन आया है। सुवा,वन में रहने वाले सुवा...तेरा तो सुन्दर हरा शरीर..पीली चोंच...चंचल आंखे... तेज नजर है......जा सुवा सभी नगरवासियों को निमंत्रण दे आओ..-

                                 

सुवा रे सुवा, बनखण्डी सुवा,

जा सुवा नगरिन न्यूत दिया

हरिया तेरो गात,पिंङली तेरो ठूंग,

रतनारी तेरी आंखी, नजर तेरी बांकी

सुवा रे सुवा, बनखण्डी सुवा,

जा सुवा नगरिन न्यूत दिया

 

तिलक लगाना: विवाह की तिथि से पूर्व अथवा बारात आने से कुछ समय पहले तिलक लगाने यानि पिठ्या लगूण का कार्यक्रम होता है। इसके तहत वर पक्ष की ओर से पांच अथवा सात लोग कन्या पक्ष के यहां जाकर भावी वधू को टीका लगाते है और उसे उपहार स्वरुप वस्त्र, फल, मिष्ठान द्रव्य आदि प्रदान करते है।इधर कन्या पक्ष की तरफ से भी इस एवज में उपहार दिये जाते है। इस कार्यक्रम में वर की उपस्थिति आवश्यक नहीं होती। इस अनुष्ठान को एक तरह से सगाई का ही प्रतिरुप माना जा सकता है।

सुंआल पथाई: विवाह से एक या तीन अथवा पांच दिन पहले वर कन्या दोनों के यहां सुवाल पथाई का कार्यक्रम होता है। सुवाल पथाई की इस विशिष्ट परम्परा में आटे से निर्मित पापड़ (सुवाल) तथा आटे,चावल तिल के लड्डू (लाडू) बनाये जाते हैं (श्रीमती माया तिवारी,देहरादून) सुवाल पथाई के लिए आटा गंूथने के समय गीतों के माध्यम से पितरों को भी निमंत्रित किया जाता है। प्रतीक रुप में भंवरे से पितृ लोक जाकर उन्हें निमंत्रण देने का अनुरोध किया जाता है...भंवरा कहता है कि मैं पितरों का नाम नहीं जानता...गांव नहीं जानता...पितरों का द्वार कहां होगा...जहां बादलों की रेखा होगी...सूरज,चन्द्रमा होगंं...सोने के दमकते द्वार हांेगे उसी स्वर्ग में पितरों का द्वार होगा।

 

जाना जाना भंवरी पितरों का लोका, पितरन न्यूतिए

नौ नि जाणनू,गौं नि जाणनू, कां होला पितर द्वार

आधा सरग बादल रेख,आधा सरग चन्द्र सुरजि

आधा सरग पितरन को द्वार, जां रे होला सुनु का द्वार

 Haldi ceremony

 कुमाऊं अंचल में क्षत्रिय वर्ग की बारात में छोलिया (ढाल-तलवार धारी नर्तक)गाजे-बाजे के साथ नृत्य करते हैं इनके बारात के आगे-पीछे लाल सफेद रंग की ध्वजा भी ले जायी जाती है।बारात के साथ पहाड़ी ढोल, दमाऊ,रणसिंग मशकबीन जैसे परमम्परागत वाद्य यन्त्रों को बजाने का चलन है।जब बारात कन्या के घर पर पहुंचती है तो कन्या की बहिन चतुराई से वर के जूते छिपाने का यत्न करती है और वापिस करने के एवज में नेग मांगती है। यहां के वैवाहिक कार्यक्रमों में अनुष्ठान के समय गिदारियों (महिला गायकों) द्वारा मांगल गीत भी गाये जाते हैं। कुमाऊं  अंचल के विवाहोत्सव में वर-वधू को देव स्वरुप मानने की परम्परा है, इसलिए इन्हें मुकुट पहनाने की भी प्रथा है। मुकुट में प्रायः गणेश व राधा-कृष्ण के चित्र अंकित रहते हैं। कुमाउनी परम्परानुसार रोली और पीसे चावल के बिस्वार से वर के मंुह में कुरुमु (बिन्दु आकार में)का अंकन किया जाता है। कन्यादान के समय वर-वधू के पक्ष के लोग एक दूसरे पर गीतों के माध्यम से चुटीले व्यंग्य और हास-परिहास भी करते हैं इससे समूचे वातावरण में रौनक छा जाती है।

गणेश पूजा: वैवाहिक कार्य बिना किसी बाधा के अच्छी तरह से सम्पन्न हांे इस कामना के निमित्त वर कन्या पक्ष के लोग अपने-अपने यहां विवाह से एक-दो दिन पूर्व सिद्धि कत्र्ता भगवान गणेश की प्रतिमा का पूजन कर उन्हें दूर्वा अर्पित करते हैं। जिसे कुमाऊं अंचल में गणेश में दुब धरण कहते हैं। इसके पश्चात आगे के वैवाहिक कार्यों की विधिवत शुरुआत हो जाती है। आबदेव पूर्वांग, गणेश पूजन, मातृका पूजन नंदीश्राद्ध,पुण्याहवाचन, कलश स्थापन,नवग्रह पूजन के पश्चात प्रधान दीपक जलाया जाता है। इन अनुष्ठानों के साथ ही वर और कन्या को उनके निकट सम्बन्धियों द्वारा हल्दी लगायी जाती है और स्नान कराया जाता है। वर-कन्या के हाथों में कंकण (पीले कपड़े के एक टुकड़े में रखे सुपारी द्रव्य की छोटी पोटली) बांधी जाती है। इन विधानों के होने के बाद कन्या के माता-पिता उसकी विदाई होने तक व्रत रखते हैं।

Dhuliarghay  

धूलिअघ्र्य: गोधूलि की बेला में कन्या के घर के द्वार में बारात पहंुचने पर कुंवारी कन्याएं जल से भरे कलश के साथ बारातियों का स्वागत करती हैं। वर को गोदी में उठाकर आंगन में लाल मिट्टी और चावल के बिस्वार से बनी धूलिअघ्र्य की चैकी पर लाया जाता है। ज्यामीतिय आरेखन के मध्य कमल, कलश, शंख, चक्र गदा जैसे प्रतीकों से चित्रित इस चैकी के उपर काष्ठ निर्मित दो अलग-अलग चैकियां रखी जाती हैं,(श्रीमती दीपा लोहनी,हल्द्वानी) जिनमें वर आचार्य को सम्मान के साथ खड़ा किया जाता है। चैकी में खडे़ वर को विष्णु का स्वरुप मानकर उसकी पूजा की जाती है। कन्या के पिता द्वारा वर और आचार्य के पांव धोने के बाद उन्हें तिलक लगाया जाता है और द्रव्य वस्त्र की भेंट दी जाती है। बारातियों का स्वागत करते हुए मांगल गीत गाने वाली गिदारियां कहती है।-

 

छाजा में बैठी समधणि पूछै को होलो दुल्हा को बाबा ए

को होलो दुल्हा को दादा , को होलो दुल्हा को ताऊ

कालो छो जूतो,पिंगली टांको,वी होलो दुल्हा को बाबा

खोखलो छो बूढ़ो,लम्बी दाड़ी वी होलो दुल्हा को दादा

लाल दुशाला,श्वेत छ लुकुड़ा, वी होलो दुल्हा को ताऊ ए

This is a symbol of Shubh Vivaah. Pic by Smt Bharti Pande Dehradun. 

धूलिअघ्र्य के बाद बारातियों और कन्या पक्ष की ओर से उपस्थित लोगों को सामूहिक भोज दिया जाता है। भोजन के उपरान्त पुरोहित द्वारा वर-वधू के कुंडली अनुसार रात्रि लग्न के अनुसार कन्यादान का मूहूर्त निकाला जाता है और विवाह के मुख्य संस्कार कन्यादान की तैयारी की जाती है।

पाणिग्रहण अथवा कन्यादान: कुमाऊं अंचल में कन्यादान का अनुष्ठान वस्तुतः घर के निचले तल गोठ में करने की परम्परा रही है। बारातघरों के चलन से अब कन्यादान सजे हुए मण्डप में भी सम्पन्न हो रहे हैं। कन्यादान के प्रारम्भ में कन्या की माता अन्य महिलाएं कन्या को अपने आंचल से ढकाते हुए अनुष्ठान स्थल तक लाती हैं। वर पक्ष के लोग पूरब और कन्या पक्ष के लोग पश्चिम दिशा को मंुह करके बैठते हैं(श्रीमती भारती पाण्डे, 2017) गणेश की पूजा के बाद कन्यादान के अनुष्ठान की विधिवत शुरुआत हो जाती है।मांगल गीत गाये जाते हैं और कन्या का पिता वर के पांव धोकर उसे तिलक लगाता है।

Chholi or Gifts

इसके बाद वर कन्या पक्ष के लोग परस्पर छोली यानि फल,मिष्ठान, मेवा, वस्त्र, द्रव्य, स्वर्णा-भूषण श्रंृगार सामग्री का आदान-प्रदान करते हैं। कन्या को वर पक्ष की ओर से लाये गये वस्त्र आभूषण पहनाये जाते है। इसी दौरान दोनों पक्षों के पुरोहित एक दूसरे से संवाद करते हैं वर-वधू के गोत्र, प्रवर,शाखा पूर्वजों का परिचय प्राप्त करते हैं। कन्यादान का लग्न आते ही कन्या का पिता उत्तर कन्या को पश्चिम दिशा की तरफ मुंह करके बिठाया जाता है। इसके बाद पिता कन्या की हथेली अपने हाथ में लेता है और माता तथा परिवार के ताई, चाची लोटे से जल की धार पिता की हथेली वर-कन्या के अंगूठे पर धीरे-धीरे डालती है।इसे यहां गडुवे की धार देना कहते है (श्री भावा जी पंडित, पुरोहित,ग्राम काण्डे) यह क्षण माता-पिता के लिए अत्यंत भावुक होता है...माता के हाथ में गडुवा है........उसमें से पानी की धार गिर रही है...कन्या का हथेली थामे हुए पिता के हाथ थर-थर कांप रहे हैं...

 

Gaduve ki dhaar dena

हाथ गडुवा ले मायड़ी ठाड़ी

बवज्यू कुश की डाली

थर-थर कांपे हाथ बवज्यू तुम्हारे

जैसे वायु से पात

हम नहीं कांपे लाडो हमारी

वे तो कांपे कुश की डाल

 

Sindhur 

गडुवे की धार देने के बाद कन्या वर पक्ष की तरफ बैठ जाती है जहां वर कन्या को तिलक लगाने के बाद उसकी मांग में सिंदूर भरता है। वर वधू के सिर पर मुकुट बांधा जाता है। इसके बाद 'अंचल बन्धन का अनुष्ठान किया जाता है, जिसमें वर और कन्या के अंचल पट (पीले रंग का एक लम्बा कपड़ा) को परस्पर बांधने की प्रथा है। इस तरह कन्या अब वर परिवार की सदस्य हो जाती है। इसी बीच शय्यादान की रीति पूरी की जाती है और वधू वर को लक्ष्मी-नारायण समान मानकर उनकी आरती की जाती है।

Aanchal Bandhan

सप्तपदी: कन्यादान सम्पन्न होने के पश्चात अगला अनुष्ठान सप्तपदी यानि फेरे लेने का होता है। फेरे लेने के लिए वर-वधू बाहर आते हैं। विशेष बात यह रहती है कि इस अनुष्ठान में कन्या के माता-पिता को शामिल नहीं होते। अग्नि प्रज्वलित कर होम किया जाता है फिर सप्तपदी विधान के अनुसार वर-वधू अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं। फेरे के समय कन्या का भाई उसे सूप से खील देता है और वधू उसे गिराते जाती है। फेरों के बाद थाली में घी की सात बत्तियं जलायी जाती हैं और क्रमशः छःह बत्ती बुझाने के बाद सातवीं बत्ती की पूजा की जाती है। वधू की मांग में सिंदूर भरा जाता है व तिलक लगाया जाता है। इसके बाद वर-वधू को दही-बताशा खिलाया जाता है।।

 

समस्त वैवाहिक संस्कार सम्पन्न होने के बाद कन्या को डोली में बिठाकर उसे ससुराल के लिए विदा किया जाता है। कन्या की माता अत्यन्त विह्वल होकर वर पक्ष के लोगों से अनुनय करती है कि मेरी लाड़िली को किसी भी तरह दुःख मत देना.....मैंने दूध की दस धार पिलाकर.....और...दस तुम्बी तेल से मालिश कर और दस गठरी कपड़े मोल लेकर अपनी लाड़िली को पाला-पोषा है...

 

अरे-अरे लोको पंडित लोको,सज्जन लोको

मेरी बेटी दुःख जन दिया हो

दस धारी मैंले दूध पिवायो

मेरी बेटी दुःख जन दिया हो

दस तुम्बी मैंले तेल चुबायो

दस गठरी मैंले कपड़ा मोलायो

मेरी धिया दुःख जन दिया हो

 

पाणिग्रहण संस्कार होने के बाद जब वधू अपने ससुराल में पहुंचती है तो वर की मां या जेठानी उसे अपने साथ घर के अन्दर प्रवेश कराती है।घर के लोगों,सम्बन्धियों तथा घर में आनाज रखने के भण्डार, उसकी भावी जिम्मेदारियों आदि से परिचय कराया जाता है। वधू प्रवेश की रीति पूजन विधान के बाद अन्त में नौल सिवाने का कार्यक्रम होता है। इसमें नई वधू घर की महिलाओं के साथ सिर में कलश लेकर गांव के नौले/धारे (जलस्रोत) में जाती है। ज्योति पट्टा पूजा में प्रयुक्त हो चुकी सामग्री को वधू उस जलस्रोत में विसर्जित करती हैं और सभी लोग ईश्वर को धन्यवाद देते हुए उनसे सुखी जीवन का आर्शीवाद मांगते हैं।

 

कुमाउनी विवाह की कुछ रीतिगत विशेषताएं

 

कुमाऊं अंचल के पारम्परिक विवाह में कुछ रीतिगत विशेषताएं भी दिखायी हैं जो इसे अन्य अंचलो की तुलना में अलग पहचान प्रदान करती हैं। ग्रामीण परिवेश में विवाह संस्कार 1. घर के आंगन 2मकान के भू-तल यानि गोठ तथा 3घर के बाहर मण्डप में सम्पन्न किये जाते हैं। जहां क्रमशः धूलिअघ्र्य, कन्यादान और अग्नि प्रदक्षिणा के अनुष्ठान कार्य होते हैं (श्री भावा जी पंडित, पुरोहित)

 

वर वधू दोनों पक्ष के सुवाल पथाई के दिन काले तिल से समधी-समधिन को प्रतीक स्वरुप बनाया जाता है और छोली देते समय परस्पर इन्हें अदला-बदली की जाती है।वैवाहिक कार्यक्रमों में घर की महिलाएं पारम्परिक रंगवाली पिछौड़ पहनती हैं। कुछ सालों पूर्व तक इन्हें सुवाल पथाई के दिन कपडे़ को पीले रंग में रंगकर उसमें मेहंदी रंग के गोलाकार बूटों से सुसज्जित किया जाता था, पर अब यह बाजार में आसानी से उपलब्ध होने लगे हैं।कई जगहों पर बारात प्रस्थान से पहले वर पक्ष की ओर शगुन भेजने की परम्परा निभाई जाती है। एक विशेष व्यक्ति मुसभिजै/जोली को दही के बरतन (दही की ठेकी) हरी पत्तेदार सब्जी के साथ वधू पक्ष के घर भेजा जाता है। इससे यह पता चल जाता है कि वर पक्ष वालों की तैयारी पूरी हो चुकी है और वे बारात लेकर रहे हैं।

कुमाऊं अंचल में क्षत्रिय वर्ग की बारात में छोलिया (ढाल-तलवार धारी नर्तक)गाजे-बाजे के साथ नृत्य करते हैं इनके बारात के आगे-पीछे लाल सफेद रंग की ध्वजा भी ले जायी जाती है।बारात के साथ पहाड़ी ढोल, दमाऊ,रणसिंग मशकबीन जैसे परमम्परागत वाद्य यन्त्रों को बजाने का चलन है।जब बारात कन्या के घर पर पहुंचती है तो कन्या की बहिन चतुराई से वर के जूते छिपाने का यत्न करती है और वापिस करने के एवज में नेग मांगती है। यहां के वैवाहिक कार्यक्रमों में अनुष्ठान के समय गिदारियों (महिला गायकों) द्वारा मांगल गीत भी गाये जाते हैं। कुमाऊं  अंचल के विवाहोत्सव में वर-वधू को देव स्वरुप मानने की परम्परा है, इसलिए इन्हें मुकुट पहनाने की भी प्रथा है। मुकुट में प्रायः गणेश व राधा-कृष्ण के चित्र अंकित रहते हैं। कुमाउनी परम्परानुसार रोली और पीसे चावल के बिस्वार से वर के मंुह में कुरुमु (बिन्दु आकार में)का अंकन किया जाता है। कन्यादान के समय वर-वधू के पक्ष के लोग एक दूसरे पर गीतों के माध्यम से चुटीले व्यंग्य और हास-परिहास भी करते हैं इससे समूचे वातावरण में रौनक छा जाती है।

बारात की विदाई के समय यहां कन्या की ओर से बारातियों को तिलक लगाया जाता है और सम्मान सहित दक्षिणा दी जाती है।गांव बिरादरी को शगुन के तौर पर सूखा गोला देने का रिवाज है।कन्या की विदाई के बाद दो-चार दिनों के अन्दर कन्या वर दोनों शुभवार में अपने पिता के घर आते हैं जिसे दुबारा आगमन या दुर्गुण कहा जाता है। विवाह के बाद वर की मां वधू के मायके आकर उसकी मां से जब प्रथम बार भेंट करती है तो इसे कुमाऊं अंचल में समध्यौण भेंटण कहा जाता है(श्रीमती दीपा लोहनी एवं श्रीमती माया तिवारी,हल्द्वानी )

 

निष्र्कष रुप में यह कहना उचित होगा कि वर्तमान में कुमाऊ अंचल की बोली-भाषा अन्य तमाम रीति-रिवाजों के साथ ही यहां के रीतिगत वैदिक विवाह पर भी आधुनिकता की छाप अवश्य पड़ी है, परन्तु यह प्रसन्नता की बात हैं कि ग्रामीण परिवेश के अलावा शहर विदेशों में बसे प्रवासी लोग भी किसी किसी तरह परम्परागत वैदिक विवाह की रीति उसके आवश्यक अनुष्ठानों को व्यवहार में ला रहे हैं। निश्चित रुप से इसे स्थानीय संस्कृति के विकास और संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।

 

Author दून पुस्तकालय एवं षोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत।

To read article in PDF format in Hindi. 

To read article in English. Except one all pictures by the author. 

 

सन्दर्भ:

1.देवी,गणेश एन.एवं भट्ट,उमा पाठक,शेखर, 2011,भारतीय भाषा लोक सर्वेक्षण, उत्तराखंड की भाषाएं,खण्ड 30 भाग 1(सम्पादित),हैदराबाद,ओरियंट ब्लैकस्वान प्रा.लि.

2.नौटियाल,भगवती प्रसाद,2013,मध्य हिमालयी भाषा, संस्कृति, साहित्य एवं लोक साहित्य, देहरादून, समय साक्ष्य प्रकाशन।

3.पन्नालाल,आई.सी.एस,(अनुवाद,थपलियाल,प्रकाश),2008,कुमाऊंमें प्रथागत कानून,आदिबदरी,हिमालय संचेतना संस्थान।

4.पांडे इन्दु,2006,उत्तरांचल एक सांस्कृतिक झलक: विवाह-गीत-संगीत,फरीदाबाद, इंदु पांडे।

5.पाण्डे, भारती,2017,कुमाऊं की अनमोल सांस्कृतिक विरासत,देहरादून, बिनसर प्रकाशन।

6.पेटशाली, जुगल किशोर एवं कुंजवाल, लता, 2003, कुमाऊं के संस्कार गीत, दिल्ली,तक्षशिला प्रकाशन।

7.बिष्ट,शेर सिंह, 2009, कुमाऊं हिमालय : संस्कृति एवं समाज,हल्द्वानी, अंकित प्रकाशन।

8.भट्ट, दिवा,1999,हिमालयी लोक जीवन: कुमाऊं एवं गढ़वाल, हल्द्वानी,आधारशिला प्रकाशन।

9.बिष्ट,बी.एस.,1997, उत्तरांचल: ग्रामीण समुदाय, पिछड़ी जाति एवं जनजातीय परिदृश्य, अल्मोड़ा,श्री अल्मोड़ा बुक डिपो।

10.वशिष्ठ,सुदर्शन,2010, हिमालय गाथा-4: समाज-संस्कृति,दिल्ली,सुहानी बुक्स।

11.वाल्दिया,के.एस.1988,कुमायू : लैण्ड एण्ड पीपुल, (सम्पादित), नैनीताल,ज्ञानोदय प्रकाशन।

 

साक्षात्कार और वार्ता (Interviews and talks)

1.श्री देवकी नंदन लोहनी,वरिष्ठ नागरिक, ग्राम लोहना से साक्षात्कार 16 फरवरी, 2018

2.श्रीमती दीपा लोहनी, गृहणी,हल्द्वानी से व्यक्तिगत वार्ता, 19 फरवरी, 2018

3.श्रीमती माया तिवारी, गृहणी,देहरादून से व्यक्तिगत वार्ता, 21 अगस्त, 2018