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कुमाऊं अंचल की परम्परागत होली

Pic by Sri Pradeep Pande.

उत्तरप्रदेश के मथुरा-वृन्दावन की तरह उत्तराखण्ड के कुमाऊं अंचल की होली भी प्रसिद्ध मानी जाती है। यहां की होली में विविध रंग गीतों के साथ ही स्थानीय संस्कृति के भी दर्शन होते हैं।

 

कुमाऊं अंचल में होली के तीन स्वरुप दिखायी पड़ते हैं-बैठी होली’, खड़ी होली ᾿ तथा महिलाओं की होली ᾿

 

Baithi Holi being celebrated with music and songs. Pic by Sri Sanjay Sah

बैठी होली

नगरीय परिवेश में इस होली का गायन सर्वाधिक होने की वजह से इसे नागर होली के नाम से भी जाना जाता है। बैठ होली का गायन देवस्थान, सार्वजनिक भवन अथवा घर आंगन में बैठकर किया जाता है जिसमें पांच-सात अथवा उससे अधिक लोग एकत्रित होते हैं। बैठ होली हारमोनियम, तबले, मजीरे ढोलक के साथ गायी जाती है। बैठ होली के दौरान होल्यारों को गुड़ की डली, पान, सुपारी, लौंग, इलायची के साथ ही पहा़डी़ व्यंजन- चटपटे आलू के गुटकों  सूजी से बने स्वादिष्ट सिंगलों को भी परोसा जाता है।

 

बैठी होली गायन का आरम्भ यहां पौष माह के पहले रविवार से हो जाता है जो गांव-शहर के मन्दिर,घर अथवा विशेष स्थानों पर जमती हैं। बसन्त पंचमी के बाद बैठी होली के गायन में और अधिक रंगत छा जाती है। लोकमान्यता को आधार मानकर यहां के संस्कृतिकर्मी कुमाऊं में बैठी होली गायन का आरंभिक काल ढाई सौ से तीन सौ साल पूर्व का मानते हैं। उस समय बैठी होली राजदरबार का अभिन्न अंग हुआ करती थी।

 

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में बैठी होली का गायन आम समाज में भी होने लगा। अल्मोड़ा में इसकी शुरुआत मल्ली बाजार स्थित हनुमान मंदिर से मानी जाती है। वर्तमान में बैठ होली की इस समृद्ध परम्परा को शहर की प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था हुक्का क्लब सहित अन्य सामाजिक संस्थाएं आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है। अल्मोड़ा में पूष के पहले इतवार से फागुन की पूर्णिमा तक जमने वाली महफिल में रसिक जन होली गायन का भरपूर आनन्द उठाते हैं।

 

नैनीताल में शारदा संघ, नैनीताल समाचार, युगमंच तथा हल्द्वानी में हिमालय संगीत शोध समिति, पौड़ी में श्री रामलीला समिति तथा देहरादून की कुर्मांचल परिषद् आदि संस्थाएं भी हर साल बैठ होली का आयोजन कर इस पुरानी परम्परा को निभा रही हैं।

 

Khadi Holi being celebrated in white kurta pujama. Pic by Sri Anoop Sah

खड़ी होली

ग्रामीण परिवेश के निकट दिखायी देने वाली खड़ी होली को ठा़ड़ होली भी कहा जाता है। खड़ी होली में आम जन की भागीदारी प्रमुखता के साथ रहती है। फाल्गुन एकादशी को पदम वृक्ष की टहनी में चीर बंधन रंग चढ़ने के बाद ही खड़ी होली का गायन प्रारम्भ होता है जो पूर्णमासी के अगले दिन छलडी़ तक चलता है। कुमाऊं में खड़ी होली केवल पुरुषों द्वारा ही द्वारा गायी जाती है। गोल घेरे में गायी जाने वाली इस खड़ी होली में पद संचालन और हाथों के अभिनय का विषेष महत्व होता है। खड़ी होली गाने वालों को यहां होल्यार कहा जाता है।

 

सफेद कुरता-पैजामा टोपी पहने होल्यार घर-घर जाकर होली गाते हैं। होल्यारों के घेरे के बीच मंजीरा ढोलक बजाने वाले व्यक्ति रहते हैं। कुमांऊ के अलग-अलग स्थानों में होली के रुप गायन शैली में आंशिक भिन्नता भी रहती है।

 

Drawing of Ladies Holi by Nidhi Tewari.

महिलाओं की होली

कुमाऊं अंचल में कुछ जगहों पर महिलाओं द्वारा अलग से होली गाने की भी परम्परा है। महिलाओं द्वारा गाये जाने वाले गीत बैठी खड़ी होलियों का मिला-जुला रुप होती हैं।महिलाएं ढोलक मंजीरा बजाकर होली गाती हैं। महिलाओं की यह होली एकादशी से प्रारम्भ हो जाती है

 

घर खेती के काम धन्धे निपटाकर महिलाएं अत्यंत उल्लास के साथ बैठी होली में भाग लेती हैं। बैठ होली में महिलाएं स्वांग और प्रहसन भी करती हैं। मीठे तीखे व्यंग्य से भरपूर यह स्वांग सम-सामयिक घटनाओं के अलावा परिवार के सास ससुर, बहू, राबी, गांव प्रधान नेताओं के व्यवहार को सहज भाव से उजागर करते हैं।

 

तन-मन को रंग देती हैं यहां की होलियां

बसन्त ऋतु में कुमांऊ की समपूर्ण प्रकृति फागुनी रंग से सरोबार हो जाती है। ऊंचे शिखरों में बुंराश के लाल फूल जहां अपनी लालिमा बिखेर रहे होते हैं तो वहीं साढ़ीदार खेतों में फूली सरसों हवा के मन्द बयारों के साथ इतरा रही होती है। घर आंगन के पास लगे आडू, खुबानी, दाड़िम पदम के पेड़ सफेद-गुलाबी फूलों से लकदक हो जाते हैं। प्योंली किलमड़ के नन्हें पीले फूल भी अपनी बसन्ती छटा वातावरण में बिखेर देते हैं। ऐसे में तब यहां का जन मानस पीछे क्यों रहता! वह भी फागुनी बयार में अपने को रंगने लगता है। प्रकृति के साथ एकाकार होकर वह रस भरे होली गीतों से अपना उल्लास व्यक्त करने लगता है।

 

खडी़ होली गायन का क्रम कुमाऊं में फागुन शुक्ल पक्ष की एकादशी से शुरु हो जाता है। इस दिन गांव-शहर के मन्दिर चौराहों पर कपड़े के टुकड़ों की चीर बांधी जाती है। पदम की टहनी काटकर लायी जाती है जिसे शुभ मुहुर्त्त में जमीन पर रोप दिया जाता है। इस टहनी में रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े (चीरे) बांध दिये जाते हैं। इसके बाद पूजा-विधान कर उस चीर वृक्ष के चारों ओर घेरा बनाकर खड़ी होली की शुरुआत की जाती है। चीर-बन्धन के समय यह होली गायी जाती है-

 

कैलै बांधी हो चीर.

जै रघुनंदन राजा

ब्रह्मा जी बांधी चीर हो, रघुनंदन राजा

विष्णु जी बांधी चीर हो, रघुनंदन राजा

शिवज्यू लै बांधी चीर हो, रघुनंदन राजा

 

होली एकादशी के दिन कुमाऊं अंचल के मंदिरां घर के देवस्थानों में रंग के छींटे डाले जाते हैं। घर परिवार के सदस्यों के सफेद कपड़ों पर भी रंग डाला जाता है। भगवाऩ गणेश सहित समस्त देवी देवताओं से घर कुटुम्ब गांव समाज के खुसहाली एवं समृद्वि की मंगलकामना की जाती है और यह होली गायी जाती है -

 

तुम सिद्वि करो महराज, होरी के दिन में

गणपतिजी जी हैं लाख बरीस

रिद्वि-सिद्वि ले के साथ, होरी के दिन में

ब्रह्माजी जी हैं लाख बरीस..

विष्णुजी जी हैं लाख बरीस

 

गांव के सभी बच्चे, बूढे़, जवान खडी़ होली के रंग में सारोबार होने लगते हैं। ढोल की गमक और झांझर की झनकार के साथ जब सामूहिक होली गांव के मंदिरं में गायी जाती है तो लगता है कि देवलोक के देवगण भी होल्यारों के साथ होली गायन में शामिल हो गये हैं-

 

करी तपस्या घनघोर भगीरथ गंगा ले आये

शिव की जटा में गंग बहति हैं

कर गंगा स्नान भगीरथ गंगा ले आये

परबत फाड़ि गऊमुख निकली

हरिद्वार में आय भगीरथ गंगा ले आये

 

बसन्ती रंग की छटा से मोहित होकर पहाड़ के नर-नारी अत्यंत आल्हादित हैं‚ उनका रोम-रोम पुलकित हो उठा है और मन में यौवन श्रंगार की कोपलें फूटने लगी हैं। होली की मस्ती में होल्यार रस भरी होली गीतों को गाने से भी नहीं चूकते। भंवरे तुम उड़ चलो अन्यथा तुम्हारी खैर नहीं -

 

उड़ि जा भंवर तोके मारेंगे

उड़ि -उड़ि भंवरा बगिया में बैठे

फूलन के रस लेय भंवर तोके मारेंगे

उड़ि-उड़ि भंवरा स्यूंनिन में बैठे

स्यूंनिन के रस लेय भंवर तोके मारेंगे

 

गांव से परदे गये पिया की राह देखते देखते प्रियतमा की आंखे थक हार जाती हैं। फागुन का महीना आते ही वह अत्यंत व्याकुल अधीर हो उठी है। उसके प्रीतम भी इस फागुन में घर आने वाले हैं। वह साज-श्रृंगार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर तथा तरह-तरह के पकवान बनाकर अपने प्रीतम की प्रतीक्षा कर रही है। भाव विह्वल होकर वह अपने सखी से कहती है-

 

बलमा घर आये फागुन में

जब से पिया परदेस सिधारे

आम लगाये बागन में

सुन्दर तेल फुलेल लगायो

स्योनि श्रंगार करावन में

भोजन-पान बनाये मन में

लड्डू-पेडा़ लावन में

आये पिया हरष भई हूं

मंगल काज करावन मे

बलमा घर आये फागुन में

 

Celebrating Holi on the banks of the Naini Lake in Nainital. Pic by Sri Anoop Sah.

पूर्णिमा की रात में होलिका जलायी जाती है। उसके अगले दिन छलड़ी यानि रंगों से गीली होली खेली जाती है। इस दिन होल्यार घर-घर जाकर कुटुम्ब परिवार को आशीष वचन देते हैं। छलड़ी के अगले दिन टीका होता है। गांव के मन्दिरां में पूजा अर्चना की जाती है और हलुवे का भोग लगता है। इस पूजा में लोग सामूहिक रुप से एकत्रित होते हैं। इस तरह होली को विदाई देकर होल्यार अगले वर्ष की होली का इन्तजार करते हैं।

 

गावैं खेले देव अशीष, होहो होलक रे

बरस दिवाली बरसै फाग,

होहो होलक रे

जो नर जीवैं खेले फाग,

होहो होलक रे

 

कई विषेषताएं दिखती हैं कुमाउनी होली में

कुमाऊं अंचल की होली में विवि तरह की आंचलिक विशेषताएं मिलती हैं। उत्तर भारत के ब्रज-अवध से निकलकर आयी इस होली ने धीरे-धीरे पहाड़ के स्थानीय तत्वों को अपने में समाहित किया है और उसे एक नया स्वरूप देने की कोशिश की है। विभिन्न काल खण्डों में इसमें लोक के रंग भी घुलते रहे। होली के इसी रूप को आज हम कुमाऊं की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के तौर पर सामने पाते हैं

 

1 होली गायन की अवधि : कुमाऊं इलाके में होली गायन का आरम्भ बैठी होली के रुप में पूष के प्रथम रविवार से हो जाता है जो फाल्गुन माह के पूर्णिमा के बाद आने वाली छरड़ी तक या उससे आगे चैत्र के संवत्सर अथवा कहीं-कहीं रामनवमी तक भी चलता है। बसंत पंचमी से पूर्व तक बैठी होली में निर्वाण भक्ति प्रधान होलियां तथा इसके बाद रंगभरी श्रृंगारिक होलियां गायीं जाती हैं। पदम वृक्ष की टहनी को सार्वजनिक स्थान पर गाड़ने चीर बंधन के बाद फाल्गुन एकादशी को रंग-अनुष्ठान होता है, और खड़ी होलियां शुरू हो जाती हैं। इतने लम्बे दौर तक होली गायन का प्रचलन सम्भवतः कहीं और नहीं दिखायी देता है

 

2 होली गायन के विविध रुप : कुमाऊं में होली गायन के तीन रुप मिलते हैं- बैठ होली, खड़ी होली और महिलाओं की होली। इन सभी होलियों का विवरण पूर्व में दिया जा चुका है।

 

3 बैठ होलियों में गायन की शिथिलता : बैठ होली जो कि शास्त्रीय रागों पर आधारित होती है उसमें आम व्यक्ति जो इसके गायन में बहुत प्रवीण भी हो वह भी अपने स्वर की भागीदारी बिना हिचकिचाहट के साथ कर लेता है। बैठ होली गीतों में शास्त्रीय रागों की बाध्यता को यहां के समाज ने गायन के दौरान थोड़ी शिथिलता के साथ कम किया है। शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक द्वारा उठाई गयी होली में अपना स्वर जोड़ लेता है।

 

4 आध्यात्म और प्रकृति से जुडे़ हैं होली गीत : यहां गायी जाने वाली होली का यदि विश्लेषण करें तो हमें इनके अन्दर विविध भाव और संदेश दिखायी देते हैं। निर्वाण भक्ति प्रधान होली गीत जहां समाज को सासांरिक माया-मोह से उबरने तथा ईश्वरीय शक्ति को अनुभूति करने का संदेश देते हैं तो वहीं श्रृंगार रसभरी होलियां प्रकृति के साथ ही सम्पूर्ण मानव जगत में राग-रंग, उल्लास प्रेम के भाव को संचारित करती हैं।

 

5 होली गीतों का सामयिक आन्दोलनों से जुड़ना : अनेक बार सामाजिक और समयामयिक आंदोलनों में यहां के होली गीतों को माध्यम बनाने का जो अभिनव प्रयोग किया गया है। यह भी एक तरह से यहां की होली की बड़ी विशेषता है। होली गीतों की तर्ज पर कुमाऊं के कवि गौर्दा  बाद में चारू चन्द्र पाण्डे  गिर्दा ने जिन होली गीतों को रचकर सामाजिक चेतना आन्दोलन से जोड़ा वह अद्भुत कार्य था। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में गौर्दा की होलियों तथा बाद में पहाड़ के वन शराब आन्दोलनों में गिर्दा ने जिन गीतों ने भूमिका निभाई वह बहुत महत्वपूर्ण रहा।

 

6 सामाजिक एकता की प्रतीक हैं यह होलियां : परम्परागत तौर पर वर्षों से यहां की होलियां सामाजिक समरसता ,सामूहिक एकता भाई-चारे का भी प्रतीक रही हैं। आज भी पहाड़ के गांवो में सामूहिक तौर पर होली गांव के हर घर के आंगन में जाती है। यही नहीं कई स्थानों पर आसपास स्थित एक दूसरे के गांवो में भी होल्यार होली गाने जाते हैं।

 

पहाड़ से प्रवास पर गये लोगों को भी यहां होलियों ने सांस्कृतिक रूप में मजबूत किया है लखनऊ, दिल्ली जैसे अन्य शहरों में प्रवासी लोग उत्साह के साथ परम्परागत होली मनाते हैं। होली के पर्व में प्रवासी लोगों को यहां की परम्परागत होलियां पहाड़ लौट आने को विवश कर देती हैं।

 

7 आशीष देने की निराली परम्परा मौजूद है यहां की होलियों में : कुमाऊं में होल्यारों की टोली घर के आंगन में पंहुचने के बाद जब दूसरे आंगन की ओर प्रस्थान करती है तब होल्यारों के मुखिया द्वारा सभी पारिवारिक सदस्यों को स्नेह युक्त आशीष दी जाती है। आशीष के ये वचन वसुधैव कुटुम्बकम् और जीवेत शरद शतम् की अवधारणा को पूरी तरह चरितार्थ करते हैं। आशीष का भाव यह है कि बरस दीवाली बरसे फाग...जीते रहो रंग भरो...घर का मुखिया,पारिवारिक जन...बाल बृन्द सब जीते रहें...पांचों देव दाहिने रहें और बसन्त इस घर की देहरी पर उतरता रहे।  

 

Author दून पुस्तकालय एवं षोध केन्द्र, 21 परेड ग्राउण्ड,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत।

 

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