युग निर्माता महाराज सूरजमल

  • By Dr Pramod Kumar
  • February 18, 2022
  • 7274 views

18वीं शताब्दी में उत्तरी भारत के राजनीतिक रंगमंच पर जाटों का अभ्युदय इस युग की एक बड़ी ही महत्वपूर्ण घटना है। 1669 ई. में औरंगजेब की दमनकारी नीतियों से त्रस्त होकर गोकुला के नेतृत्व में ब्रजमण्डल के जाट किसानों ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध जिस क्रांति का शंखनाद किया था, उसकी चरम परिणति हम सूरजमल के नेतृत्व में उत्तरी भारत में एक शक्तिशाली जाट राज्य के प्रभुत्व के रूप में देखते हैं। सूरजमल के पिता ठाकुर बदनसिंह ने अपने जीवन का प्रारंभ आमेर नरेश सवाई जयसिंह के संरक्षणत्व में किया था परंतु सूरजमल ने न केवल स्वयं और जाट राज्य को आमेर राज्य के संरक्षत्व से मुक्त किया बल्कि 20 अक्टूबर, 1752 ई. में मुग़ल सम्राट से जाट शासक के लिए विधिवत् ‘राजा’ की उपाधि प्राप्त कर उसे हिंदुस्तान के शासकों में वैधानिकता का दर्जा भी दिलाया।1

 

सूरजमल, जिसका उपनाम सुजानसिंह भी था, ठाकुर बदनसिंह के 20 पुत्रों में ज्येष्ठतम था। उसका जन्म 1707 ई. में रानी देवकी के गर्भ से हुआ था। एक समकालीन फ्रांसीसी पादरी फादर वैंदेल ने लिखा है, "सूरजमल औसत ऊंचाई से कुछ अधिक तथा हृष्ट-पुष्ट शरीर का स्वामी था। उसका रंग कुछ साँवला तथा चेहरा कुछ भारी था। उसकी आंखें अत्यधिक चमकीली थीं। उसकी मुखाकृति तथा आचरण से उसके मृदु एवं सौम्य होने का संकेत मिलता था।"2 किताबी शिक्षा और दरबारी शिष्टाचार की कमी तथा साधारण रहन-सहन व वेशभूषा होने के बावजूद उसमें अपार राजनीतिक बुद्धिमत्ता एवं दृष्टिकोण था। इमाद-उस-सादात के लेखक गुलाम अली ने लिखा है कि, "यद्यपि वह किसान की पोशाक पहनता था और केवल ब्रजभाषा ही बोल सकता था तथापि वह जाट जाति का प्लेटो था। बुद्धि और चतुराई में, राजस्व एवं प्रशासनिक मामलों के प्रबंध में निजाम आसफजाह बहादुर के अतिरिक्त हिंदुस्तान के सरदारों में उसके बराबर कोई व्यक्ति नहीं था।"3

उसमें अपने मूलवंश के सभी अच्छे गुण विद्यमान थे - स्फूर्ति, साहस, चातुर्य, कठोर अध्यवसाय और ऐसा अदम्य ओज जो कभी पराजय स्वीकार ना करे। षड्यंत्रों और अनैतिक कूटनीति के उस युग में उसने पाखंडी मुगल और चालाक मराठा दोनों को चकरा दिया था। संक्षेप में वह एक चौकन्नी चिड़िया के समान था जिसने स्वयं को बिना फंसाये प्रत्येक जाल में से दाना चुगा।

 

सूरजमल के जीवन की प्रथम महत्वपूर्ण सैन्य उपलब्धि 1732 ई. में खेमकरण सोगरिया, जो कि उसके पिता बदनसिंह का शक्तिशाली विरोधी था, के विरुद्ध उसका सफल अभियान था। जयपुर राज्य के उत्तराधिकार संघर्ष ने सूरजमल के शौर्य एवं वीरता को एक नया आयाम प्रदान किया। सितंबर 1743 ई. में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह की मृत्यु के साथ ही उसके दोनों पुत्रों ईश्वरीसिंह और माधोसिंह के मध्य उत्तराधिकार का संघर्ष प्रारंभ हो गया। सूरजमल जयसिंह की अंतिम इच्छा के प्रति निष्ठावान रहते हुए उसके बड़े पुत्र ईश्वरीसिंह के पक्ष में ईमानदारी से खड़ा रहा जबकि जयसिंह के छोटे पुत्र माधोसिंह ने अपने मामा उदयपुर के महाराणा जगतसिंह की सैन्य सहायता के बल पर ईश्वरीसिंह के दावे को चुनौती दी। माधोसिंह ने अपनी स्थिति को मजबूत करने हेतु मल्हार राव होलकर को भी धन देकर अपनी ओर मिला लिया। इस प्रकार अब माधोसिंह के पक्ष में मराठा सेनाओं के साथ राठौड़, सिसोदिया, हाड़ा, खींची और पंवार शासकों की एक विशाल सेना थी। दूसरी ओर ईश्वरीसिंह जयपुर राज्य की सेना और सूरजमल के भरोसे पर था। ईश्वरीसिंह के विरुद्ध सात राजाओं का संयुक्त मोर्चा बन जाने के कारण स्थितियां पूर्णतः उसके प्रतिकूल थीं। परंतु सूरजमल के नेतृत्व में जाटों की साहसिक भूमिका ने युद्ध के निर्णय को पूर्णतः पलट कर रख दिया।

20 अगस्त 1748 ई. को बगरू के मैदान में दोनों पक्षों के बीच 3 दिनों तक भारी बारिश के बीच भीषण संग्राम लड़ा गया। युद्ध के प्रथम दो दिवस पूर्णतः ईश्वरीसिंह के प्रतिकूल रहे और उसका विश्वस्त सेनानायक शिवसिंह शेखावत मारा गया। परंतु युद्ध के तीसरे दिन सूरजमल ने स्वयं सेना के हरावल (अग्रभाग) का नेतृत्व करते हुए मल्हार राव होलकर और उसके सेनापति गंगाधर तांतिया के समस्त मंसूबों पर पानी फेर दिया। संकट के उन गंभीर क्षणों में सूरजमल ने अपूर्व शौर्य का प्रदर्शन करते हुए 50 व्यक्तियों को मौत के घाट उतारा और 108 को घायल किया।4

इस प्रकार सूरजमल ने ईश्वरीसिंह की निश्चित पराजय को विजय में बदल दिया। इस अवसर पर सूरजमल द्वारा दिखलाए गए अपूर्व शौर्य का बखान करते हुए महाकवि सूर्यमल मिश्रण ने लिखा है -

सह्यो भलेही जट्टिनी जाय अरिष्ट अरिष्ट।

जाठर तस रविमल्ल हुव आमरेन को इष्ट।।

बहुरि जट्ट मलहार सन लरन लग्यो हरबल्ल।

अंगद है हुल्कर, जाट, मिहिर मल्ल प्रतिमल्ल।।5

अर्थात- जाटनी ने प्रसव पीड़ा व्यर्थ में नहीं सही, उसके गर्भ से उत्पन्न सूरज (रवि) मल शत्रुओं के लिए अभिशाप और आमेर (जयपुर) का हितैषी था। पृष्ठभाग से वापस मुड़कर जाट ने हरावल में मल्हार से युद्ध शुरू किया। होलकर भी अंगद की भांति अड़ गया, दोनों की टक्कर बराबर की थी।

Lohagarh Fort built by Jat rulers in the 18th century.  

प्रारंभिक युद्धों में प्राप्त इन विजयों से सूरजमल की सैन्य प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई जिससे उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ने लगीं। अब उसने मेवात तथा आगरा की तरफ मुगल खालसा भूमि और अमीरों की जागीरों में शनैः शनैः हस्तक्षेप द्वारा जाट राज्य के विस्तार की नीति को अपनाया। सूरजमल द्वारा शाही प्रदेशों पर किए जा रहे इस बलात अधिकार की नीति के कारण जनवरी 1749 ई. में मुगल साम्राज्य के मीरबख़्शी सलाबत खान से उसका संघर्ष हुआ। इस संघर्ष में सूरजमल द्वारा शाही सेनापति को करारी शिकस्त दी गई और उसे संधि करने के लिए विवश होना पड़ा। शाही सेनापति के विरुद्ध इस सफलता ने सूरजमल के आत्मविश्वास और प्रतिष्ठा दोनों में अपार वृद्धि की। अब सूरजमल हिंदुस्तान के राजनीतिक अखाड़े में अपनी प्रभावपूर्ण भूमिका अदा करने के लिए पूर्णः तैयार था और अपने इस लक्ष्य की पूर्ति हेतु उसने मुगल साम्राज्य के वजीर सफदरजंग से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने की रणनीति अपनाई। इस मैत्री के परिणामस्वरूप सूरजमल को एक ऐसे शक्तिशाली राजनीतिक संरक्षक का आश्रय मिला जिसके बल पर वह अधिक आत्मविश्वास के साथ हिंदुस्तान की सर्वोच्च राजनीति में साहसिक भूमिका निभाकर अपने राज्य को विस्तृत और सुदृढ़ बना सकता था। परन्तु शीघ्र ही बादशाह अहमदशाह तथा सफदरजंग के सम्बन्ध काफी बिगड़ गये और बादशाह द्वारा वजीर को उसके पद तथा अवध और इलाहाबाद की नवाबी (सूबेदारी) से बर्खास्त कर दिया गया। परन्तु सफदरजंग भी हार मानने को तैयार नहीं था। उसने अपने मित्र सूरजमल की सहायता से मुगल बादशाह को आतंकित करने के लिए सेना सहित राजधानी दिल्ली का घेरा डाल दिया। दूसरी ओर नजीबुद्दौला की अगुआई में पठानों ने, जो कि सफदरजंग के स्वाभाविक शत्रु थे, मुगल साम्राज्य के नए मीरबख्शी गाजीउद्दीन इमाद-उल-मुल्क के नेतृत्व में शाही सेना का साथ दिया। सफदरजंग की समस्त उम्मीदें सूरजमल पर टिकी हुई थीं, जिसने बादशाह को आतंकित करने के लिए पुरानी दिल्ली को इतनी बेदर्दीपूर्ण तरीके से लूटा की लोग उसे अभी भी 'जाटगर्दी' के नाम से याद करते हैं।6

यद्यपि धीरे-धीरे सफदरजंग का पक्ष कमजोर हो रहा था और उसके सहयोगी उसे छोड़कर इमाद-उल-मुल्क के खेमे में जा रहे थे, परंतु संकट की इस घड़ी में भी सूरजमल ने अपने हताश मित्र का साथ नहीं छोड़ा। उसे उच्च सम्मान के सपने दिखाए गए, बदले की धमकियां भी दी गई, परंतु निष्ठावान जाट सरदार को कुछ भी प्रभावित नहीं कर सका। वह अपने मित्र के लिए अंत तक युद्ध करने के लिए कृत-संकल्प था। जाट राजा अपनी तलवार को म्यान में रखने के लिए उस समय तक तैयार नहीं था, जब तक बादशाह सफदरजंग को यदि वजीर के पद पर न सही तो कम से कम उसे अवध और इलाहाबाद की नवाबी (सूबेदारी) वापस नहीं सौंप देता। अंत में सूरजमल के कूटनीतिक प्रयासों से इन शर्तों पर बादशाह तथा सफदरजंग के मध्य संधि संपन्न हो गई और नवाब अपने सूबे पर शासन करने के लिए लौट गया। सूरजमल ने इस प्रकार अपने मित्र की उसके अवश्यंभावी विनाश से रक्षा की।

 

बादशाह अहमदशाह तथा पूर्व वजीर सफदरजंग के मध्य हुए गृहयुद्ध में सूरजमल की भूमिका से मीरबख्शी इमाद-उल-मुल्क उस पर काफी भड़का हुआ था। अतः सूरजमल को दण्डित करने के उद्देश्य से उसने मराठों को जाट राज्य पर आक्रमण हेतु आमंत्रित किया। जनवरी 1754 ई. में रघुनाथ राव के नेतृत्व में प्रसिद्ध मराठा सरदारों से सुसज्जित लगभग 60 हजार मराठा सेना ने जाटों के प्रसिद्ध दुर्ग कुम्हेर का घेरा डाल दिया। शीघ्र ही शाही तोपखाने तथा 20 हजार मुग़ल सेना के साथ इमाद-उल-मुल्क भी इस घेरे में शामिल हो गया। इस प्रकार मराठा एवं मुगलों की लगभग 80 हजार की संयुक्त सेना ने मई 1754 ई. तक लगभग चार माह कुम्हेर दुर्ग को घेरे रखा, परंतु अपनी संपूर्ण शक्ति एवं प्रयासों के बावजूद शत्रु जाट दुर्ग को जीतने में असफल रहे। इसी दौरान मराठा सेनानायक मल्हारराव होलकर का एकमात्र पुत्र खांडेराव जाट दुर्ग से होने वाली भीषण गोलाबारी की चपेट में आकर मारा गया। सूरजमल ने कूटनीति के माध्यम से मराठा शिविर में फूट डालकर होलकर के प्रतिद्वंदी मराठा सेनानायक जयप्पा सिंधिया को अपनी ओर मिला लिया। अपने सरदारों में फूट पड़ने के कारण रघुनाथ राव को मजबूर होकर सूरजमल से संधि कर कुम्हेर दुर्ग का घेरा उठाना पड़ा।7 यह सूरजमल की एक महान सैन्य एवं कूटनीतिक उपलब्धि थी जिसके कारण मराठों को जाट राज्य से असफल होकर लौटना पड़ा। वहीं दूसरी तरफ सूरजमल को इससे अपार यश एवं ख्याति प्राप्त हुई और उसकी प्रतिभा का लोहा संपूर्ण उत्तरी भारत में स्वीकार किया जाने लगा।

मराठा अभियान की समाप्ति के पश्चात अगले लगभग ढाई वर्षों तक सूरजमल जाट राज्य के क्षेत्रीय विस्तार एवं आंतरिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में व्यस्त रहा। इस दौरान उसे किसी गंभीर संकट का सामना नहीं करना पड़ा। परंतु शीघ्र ही एक भयावह संकट सूरजमल समेत संपूर्ण उत्तर भारत को अपने आगोश में लेने के लिए बढ़ा आ रहा था। जनवरी 1757 ई. में प्रसिद्ध अफगान बादशाह अहमद शाह अब्दाली अपनी शक्तिशाली सेना के साथ राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। राजधानी दिल्ली को बुरी तरह लूट-खसोटने और आम नागरिकों के कत्लेआम के पश्चात उसका अगला लक्ष्य जाट राज्य था क्योंकि उसे यह बतलाया गया था कि न केवल सूरजमल जाट के पास अपार धन है, बल्कि दिल्ली के अधिकांश संपन्न व्यक्तियों ने भी अपने माल-असबाब के साथ उसके राज्य में शरण ले रखी है।

Deeg Palace is inside Deeg Fort, built by Surajmal in 1730 

इस समय जबकि स्वयं मुगल सम्राट और समस्त उत्तरी भारतीय शक्तियां अब्दाली के चरणों में झुकी पड़ी थीं और मराठे भी दिल्ली को असहाय छोड़ कर जा चुके थे, सूरजमल की स्थिति अब्दाली के समक्ष बड़ी ही नाजुक थी। फरवरी 1757 ई. में अब्दाली ने अपने सेनापति जहान खां को एक शक्तिशाली सेना के साथ जाट राज्य पर आक्रमण हेतु रवाना करते हुए लूटमार और कत्लेआम का आदेश दिया। जहान खां के नेतृत्व में बीस हजार अफगान सेना ने हिंदुओं के पवित्र नगर मथुरा पर भीषण आक्रमण किया। सूरजमल के पुत्र जवाहरसिंह के नेतृत्व में पांच हजार जाट योद्धाओं ने अफगान सेना का डटकर मुकाबला किया और उनमें से तीन हजार अपने पवित्र स्थल की रक्षार्थ युद्ध भूमि में शहीद हो गए। मथुरा पर अधिकार करने के पश्चात अफगान सेना ने वहां भीषण रक्तपात किया। गोकुल, वृंदावन तथा आगरा में भी बर्बरता की सारी सीमाएं लांघकर अफगान सेनाओं द्वारा भीषण लूटपाट और कत्लेआम किया गया। परंतु इसी बीच अब्दाली की सेना में महामारी फैलने के कारण उसे अपने देश वापस लौटने का निर्णय लेना पड़ा और मार्च के अंत तक जाट प्रदेश शत्रुओं से खाली हो गया।8

 

इस प्रकार सैन्य दृष्टि से सूरजमल के विरुद्ध अब्दाली का यह अभियान असफल ही रहा। राजधानी डीग तथा भरतपुर पर उसका अधिकार नहीं हो सका और न ही उनके गर्वीले स्वामी को झुकाने में वह सफल हो पाया। सूरजमल को उसके किलों से बाहर निकालने तथा उसे लड़ने के लिए बाध्य करने में वह असफल रहा। सूरजमल की रणनीति यह थी कि उस समय तक प्रतीक्षा की जाए जब तक हिंदुस्तान के मैदानों की गर्मी से परेशान होकर अब्दाली यह इलाका छोड़कर वापस न चला जाए। तब तक उसने अब्दाली को दस लाख रुपये देने का आश्वासन देकर उलझाये रखा और अंत में उसे एक पैसा भी नहीं दिया।

1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली तथा मराठों के मध्य अपने वर्चस्व को लेकर लड़े गए पानीपत के तीसरे युद्ध से पूर्व सूरजमल की स्थिति दोनों ही पक्षों के लिए बड़ी महत्वपूर्ण थी, जिसके कारण उन्होंने उसे अपने पक्ष में शामिल करने के लिए भरपूर प्रयास किए। मराठा सेनापति सदाशिव भाऊ ने स्वयं पत्र लिखकर सूरजमल से मराठों की सहायता का अनुरोध किया। यद्यपि मराठों ने राजपूतों की भांति जाटों का भी कम अहित न किया था, परंतु फिर भी राष्ट्रहित में सूरजमल ने विधर्मी और विदेशी शत्रु के विरुद्ध स्वधर्मी विरोधियों का साथ देना अधिक उचित समझा और अपने 8000 जाट सैनिकों के साथ मराठा सेना में सम्मिलित हो गया। परन्तु अब्दाली के विरुद युद्ध की रणनीति तथा योजना के विषय में भाऊ से मतभेद पैदा होने और तत्पश्चात उसके अहंकारी एवं उपेक्षापूर्ण व्यवहार ने सूरजमल के स्वाभिमान को काफी ठेस पहुंचाई जिससे आहत होकर वह मराठा पक्ष त्याग कर युद्ध से पूर्व ही अपनी सेना सहित वापस लौट आया।9

पानीपत के मैदान में मराठों को अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में भारी कीमत चुकानी पड़ी और उनका लगभग सर्वनाश हो गया। जो मराठे इस विनाश से बच गए वह शरण के लिए दक्षिण में जाट राज्य की ओर दौड़े। सूरजमल ने भी अतिथि सत्कार का धर्म निभाते हुए न केवल उन्हें संरक्षण प्रदान किया बल्कि उनकी औषधि, वस्त्र तथा भोजन की काफी अच्छी व्यवस्था की और उस पर उदार ह्रदय से लाखों रूपये खर्च कर दिये। यदि सूरजमल ने मराठों द्वारा उसके साथ किए गए दुर्व्यवहार को न भुलाया होता और इस विपत्ति के समय उनके साथ मित्रवत व्यवहार न किया होता तो उनमें से बहुत थोड़े ही नर्मदा पार करके पेशवा को अपनी दुःखपूर्ण कहानी सुना पाने के लिये जिन्दा पहुंच पाते। समकालीन मुस्लिम तथा मराठा लेखकों ने मुक्तकंठ से सूरजमल की इस उदारता की भरी-भूरी प्रशंसा की है।

पानीपत युद्ध के परिणाम जहां मराठों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुए वहीं सूरजमल के लिए इसने संभावनाओं के नए रास्ते खोल दिए। अब सूरजमल मराठों तथा अब्दाली के खतरे से मुक्त हो चुका था और इस अवसर का लाभ उसने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु उठाया। उसने कुछ ही महीनों पश्चात हरियाणा तथा दोआब के अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर जाट राज्य का काफी अधिक विस्तार कर लिया। अब उसका अगला लक्ष्य शाही राजधानी दिल्ली पर अपना नियंत्रण स्थापित करना था। उसके इस प्रयास में सबसे बड़ी बाधा रुहेला सरदार नजीबुद्दौला था, जिसे अब्दाली दिल्ली के संरक्षक की भूमिका में छोड़ गया था। शीघ्र ही दिल्ली पर वर्चस्व को लेकर सूरजमल का नजीबुद्दौला से एक व्यापक संघर्ष छिड़ गया। परंतु दुर्भाग्यवश, युद्ध के दौरान शत्रु द्वारा अचानक घात लगाकर किए गए हमले में 25 दिसंबर 1763 ई. को 57 वर्ष की आयु में सूरजमल की आकस्मिक मृत्यु हो गई। पिछले लगभग 15 वर्षों से हिंदुस्तान का सबसे अधिक दुर्जेय राजा अचानक राजनीतिक रंगमंच से अपने काम को अधूरा छोड़ कर विदा हो गया।

Ganga Mandir Bharatpur built in 1845.  

सूरजमल ने विरासत में प्राप्त एक छोटे से राज्य को उसके गौरव के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाकर उत्तरी भारत के एक विस्तृत और शक्तिसंपन्न राज्य में परिवर्तित कर दिया था। इस समय जाट राज्य पूर्व से पश्चिम तक 200 मील लम्बा और उत्तर से दक्षिण में 140 मील तक फैला हुआ था। उसकी मृत्यु के समय भरतपुर के मूल जाट राज्य के अलावा उसका विस्तार आगरा, मथुरा, एटा, मैनपुरी, मेरठ, अलीगढ़, संपूर्ण मेवात (वर्तमान अलवर), रेवाड़ी, गुड़गांव, रोहतक, झज्जर, बहादुरगढ़, फर्रूखनगर, बल्लभगढ़, (वर्तमान हरियाणा) हाथरस, मुरसान, जलेसर और दिल्ली के निकटवर्ती इलाके तक हो चुका था। सूरजमल ने जाट राज्य के क्षेत्रीय विस्तार के साथ ही उसकी आर्थिक स्थिति में भी उल्लेखनीय वृद्धि की, जिसके कारण तत्कालीन समय में जाट राज्य की गणना उत्तर भारत के सबसे समृद्धशाली व धन-संपन्न राज्यों में होती थी। फादर वैंदेल10 के अनुसार सूरजमल के समय जाट राज्य की वार्षिक आमदनी लगभग एक करोड़ पिचहत्तर लाख रुपए थी तथा उसके खजाने में कम से कम 10 करोड़ रूपये थे। इसके साथ ही पर्याप्त मात्रा में भूमिगत खज़ाना भी मौजूद था।

 

हालाँकि सूरजमल के समय जाट सेना संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ी नहीं थी, परन्तु अपने युद्ध कौशल, क्षमता तथा संगठन के कारण वह हिन्दुस्तान की एक श्रेष्ठ सेना बन गई थी। अपने गुणात्मक बल के आधार पर ही जाट सेना ने अपने समकालीन लगभग सभी हिन्दुस्तानी शासकों की सेनाओं पर अपनी श्रेष्ठता की छाप छोड़ी थी। ‘सियार-उल-मुताखरीन’ के लेखक सैयद गुलाम हुसैन खाँ ने सूरजमल की अश्वारोही सेना की कुशलता के विषय में लिखा है कि - “सूरजमल के अस्तबल में 12000 वायु की गति वाले घोड़े और उतने ही इन पर विशेष तौर से प्रशिक्षित बन्दूकची सैनिक सवारी करते थे। इनको उसने स्वयं घोड़े की पीठ पर बैठकर गोली चलाने तथा फिर चक्कर काटकर सुरक्षा या ओट में कारतूस भरने का प्रशिक्षण दिया था। ये लोग लगातार नित्य के अभ्यास से इतने फुर्तीले और खतरनाक निशानेबाज बन गए थे और इसके अतिरिक्त वे अपने काम में इतने विशेषज्ञ थे कि समूचे हिन्दुस्तान में इस क्षेत्र में कोई भी सैनिक ऐसे नहीं थे जो उनके सानी होने का दम्भ भर सकें। न ऐसे राजा के विरुद्ध लाभ की प्राप्ति के लिए युद्ध करना सम्भव माना जाता था।”11

 

सूरजमल के व्यक्तिगत जीवन में आलस्य तथा अकर्मण्यता का सख़्त अभाव था। उसने फौजी संगठन तथा अनुशासन में कुशलता व कठोरता से काम लिया। वह स्वयं सधे हुए सवारों के साथ नियमित कवायद-परेड़ करता था और सैनिकों को अनुशासन में रहने की शिक्षा देता था। सैयद गुलाम हुसैन के शब्दों में - “उसकी सेना अनुशासित व संगठित थी। उसमें महान् आपत्ति और शत्रुओं के आक्रमणों से अपनी सेना, जमींदार तथा प्रजा की रक्षा करने की सहज साहसिक योग्यता थी। शाही वज़ीर या मीर बख़्शी, मराठा तथा दुर्रानी ने विशाल सेना के साथ जब भी उसके देश पर आक्रमण किया तब वह फौजी संघर्ष को टालने के लिए ही अपनी सेना, सरदार तथा प्रजा के साथ अपने सुरक्षित दुर्गों में चला गया था। उसने आक्रान्ताओं से यथासंभव राज्य तथा प्रजा की रक्षा की और फौजी दबाव में आकर शत्रु को कभी युद्ध-क्षति की राशि का भुगतान भी नहीं किया। उसमें सैनिक उत्साह था। उसने वज़ीर सफ़दर जंग के साथ मिलकर रुहेला पठानों के साथ संघर्ष किया था। उनको एक-एक करके या मित्र-संघ के रूप में पराजित किया था और प्रत्येक रणक्षेत्र में विजेता कहलाने में सफल रहा था।”12

सन्दर्भ ग्रन्थ

1. जदुनाथ सरकार, मुग़ल साम्राज्य का पतन, खंड II, आगरा, 1972, पृ. 270-71

2. वैंदेल के वृत्तलेख, ‘हिन्दुस्तान में जाट–सत्ता’, नई दिल्ली, 2013, पृ. 164

3. मीर गुलाम अली, इमाद-उस-सादात, लखनऊ, 1897, पृ. 55

4. कालिका रंजन कानूनगो, जाटों का इतिहास, दिल्ली, 2006, पृ. 41

5. सूर्यमल मिश्रण, वंश भास्कर, पृ. 3518

6. गिरीश चन्द्र द्विवेदी, जाट और मुगल साम्राज्य, दिल्ली, 2002, पृ. 168

7. कानूनगो, पृ. 58

8. नटवर सिंह, महाराजा सूरजमल, दिल्ली, 2006, पृ. 106-07 

9. कानूनगो, पृ. 80-81

10. वैंदेल, पृ. 166

11. सैयद गुलाम हुसैन खाँ, सियार-उल-मुताखरीन, खण्ड IV, कलकत्ता, 1926, पृ. 28

12. वही

 

Author is Assistant Professor, Dept of History, MSJ Government College, Bharatpur, Rajasthan.                                                                   

Receive Site Updates