ऊर्जा संरक्षण

यहां हम उस ऊर्जा के संरक्षण के बारे में नहीं कर रहे हैं जो प्रकृति ने हमें प्रदान की है, जैसे तेल और गैस। यहां हम उस ऊर्जा को अक्षुण्ण रखने की बात कर रहे हैं जो हम मनुष्य व्यक्तिगत स्तर पर स्वयं में धारण किए हुए हैं ताकि अपने प्राप्त संसाधनों का हम अधिकतम उपयोग कर सकें, और वे हैं हमारे शरीर और मन। बहुधा व समान्यतः होता यह है कि जो सुगम है, जो स्पष्ट है उसे हम अनदेखा कर देते हैं और उस पर अपना ध्यान केन्द्रित कर देते हैं जो कि विशिष्ट प्रतीत हो रहा होता है, साथ ही हम उसे भी उपेक्षित कर दिया करते हैं जो हमारे निकटस्थ ही होता है और जिसे सरलतापूर्वक निष्पन्न किया जा सकता है। ऊर्जा के संरक्षण करने के बारे में, अपरम्परागत ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करने और घटते अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के बारे में बातें करना आजकल एक फैशन हो गया है। किसी भी व्यावहारिक समाधान पर न पहुंचने वाली इन चर्चाओं के प्रचलन और अतिशयता के बीच हम यह भूल ही जाते हैं कि हम में से हर एक के अपने शरीर के तथा मन के तंत्र को ऊर्जा के विपुल स्रोत प्रदान किए गए हैं। हमें ध्यान इस बात पर देना है कि अपने उद्यम को बढ़ाने  में हम इन स्रोतों का अधिकतम उपयोग कैसे करें।

 

हमारा शरीर ऊर्जा का भंडार है, किन्तु दुर्भाग्य से, हम यह जानते ही नहीं हैं कि इसका उपयोग कैसे किया जाए बल्कि, इसके विपरीत, हम निरर्थक कार्यों में इस ऊर्जा को व्यर्थ गँवाते रहते हैं। अधिकांश जन अपने शरीर को निष्प्रयोजन कार्यकलापों में लगाए रखते हैं। शारीरिक ऊर्जा का वृथा-उपयोग, या कहें कि अपव्यय, इतना सामान्यतः होने लगा है कि लोग अपनी इस गतिविधि को प्राकृतिक गतिविधि ही मानने लगे हैं। यह सचमुच एक विडम्बना ही है कि मनोरंजन और आमोद-प्रमोद के नाम पर अधिकांश लोग अपने शरीर की ऊर्जा को व्यर्थ गंवाते हुए उसे अत्यधिक तनाव में डाले दे रहे हैं। अपने शरीर को विश्राम देने के बहाने वे इस पर अत्याचार ही किया करते हैं। प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि मानव शरीर की ऊर्जा का विशेष ध्यान रखते थे और पलक झपकने में होने वाले जैसे ऊर्जा के अति लघु व्यय को भी अनदेखा नहीं करते थे। अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखने का प्रथम चरण होता है अपनी शारीरिक ऊर्जा का संरक्षण करना – वह ऊर्जा जो हमारे ही शरीर में उत्पन्न होती है और इसी में निवास करती है। यह देखना आश्चर्यजनक है कि किसी कार्य के बारे में केवल तीव्रता से मानसिक गणना करने और किसी क्रिया में निमग्न होने की  गतिशीलता में कितनी ऊर्जा बचाई जा सकती है। इस शरीर को साधना ही योग का आरंभ है। केवल वही शरीर योग करने के सुयोग्य होता है जो शांत है और कोई भी निष्प्रयोजन क्रिया नहीं करता है। अपने सिर को या किसी अन्य अंग को अनावश्यक रूप से हिलाना-डुलाना एक ऐसा प्रबल विक्षोभ पैदा करता है जो कि रिसता हुआ मन तक पहुंच जाता है और उसे भी विक्षुब्ध कर देता है।

 

जैसे कैमरा स्विच-ऑन होने मात्र से कैमरा ऊर्जा खाना आरंभ कर देता है, वैसे ही हमारी ज्ञानेंद्रियां भी किसी बाह्य वस्तु पर अपना ध्यान टिकाते ही ऊर्जा की खपत करना आरंभ कर देती हैं। अपनी ऊर्जा को संरक्षित रखने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि अपनी ज्ञानेन्द्रियों को किसी भी ऐसी संवेदनात्मक क्रिया में न लगाया जाए जिसे करने की हमें आवश्यकता ही नहीं है। ऐसा हो जाने पर, नेत्र केवल वह देखेंगे जिसे देखा जाना आवश्यक है, कान केवल वह सुनेंगे जो सुना जाना आवश्यक है, जिह्वा केवल वह चखेगी जिसे चखा जाना आवश्यक है, त्वचा केवल उसका स्पर्श करेगी जिसका स्पर्श किया जाना आवश्यक है, और नासिका केवल वह सूंघेगी जिसे सूंघा जाना आवश्यक है। इस प्रकार प्रशिक्षित व साधित हो जाने के उपरांत, ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनशीलता का न केवल भटकाव न्यूनतम हो जाएगा बल्कि उनकी संवेदनशीलता की क्षमता भी विशिष्ट सघनता के साथ अतिसूक्ष्म संवेदी हो जाती है।     

 

अपने मन पर हम सदैव ही भटकने का और अपना ध्यान केन्द्रित न कर पाने का दोषारोपण किया करते हैं। हम यही दुखड़ा रोया करते हैं कि हमारा मन सदैव यत्र-तत्र भटकता ही रहता है। ऐसे व्यक्ति की तनिक कल्पना कीजिए जिसके समक्ष एक ही समय पर ऐसे बहुत सारे व्यंजन परोस दिये हों  जिनको देख कर ही मुंह में पानी आ जाए, सभी व्यंजनों में से मन को मुग्ध कर देने वाली सुगंध आ रही हो और उन सभी पर आकर्षक सज्जा भी की गई हो। तब, उस व्यक्ति का ध्यान केवल किसी एक व्यंजन पर कैसे स्थिर रह सकता है? मन की भी यही दशा रहती है। उसके समक्ष भी विविध ज्ञानेन्द्रियों द्वारा लगातार कुछ न कुछ परोसा ही जाता रहता है – और वह भी एक साथ। जब नेत्र देख रहे होते हैं तब शेष चार ज्ञानेंद्रियां कोई मौन साध कर थोड़े ही न बैठ जाती हैं, और यही बात अन्य अवयवों पर भी लागू होती है। बिल्कुल किसी ऐसे व्यक्ति की तरह जो कि विद्युत के वे सब स्विच बंद कर देता है जिनका वह उपयोग नहीं कर रहा होता है, हमें भी अपनी उन सभी ज्ञानेन्द्रियों का स्विच-ऑफ कर देना चाहिए जिनका हम उस पल उपयोग नहीं कर रहे होते हैं। इससे  हमारे शरीर में ऊर्जा  की विपुल अतिरिक्त बचत होगी।

 

शारीरिक ऊर्जा को संरक्षित करने में निद्रा की महत्ता को  उपेक्षित नहीं किया जा सकता। आजकल होने वाले अनेक रोग समुचित मात्रा में भरपूर नींद लेने से ठीक किए जा सकते हैं। व्यक्ति की ऊर्जा का संरक्षण श्वास क्रिया के स्तर पर भी किया जा सकता है। लंबा तथा नियमित श्वास चक्र शरीर को शांत करने और अंतर्मुखी होने में सहायता करता है। मार्शल आर्ट्स की सभी परम्पराओं में श्वास नियंत्रण को अत्यधिक महत्व यूं ही नहीं दिया जाता है। यह शुद्ध तथा अप्रदूषित वातावरण में रहने के महत्व को भी दर्शाता है। एक उत्तम श्वास चक्र बनाए रखने के लिए हमें पौष्टिक तथा अनुकूल भोजन करने की भी आवश्यकता होगी। यह प्रायः देखा जाता है कि हमारे शरीर को ऐसा भोजन पचाने में बहुत अधिक ऊर्जा खपानी पड़ती है जो अवांछनीय तथा अनुचित होता है, जब कि आशा यह की जाती है कि भोजन हमें ऊर्जा प्रदान करेगा।

 

मनुष्य में एक असाधारण तथा विलक्षण बौद्धिक क्षमता होती है। लेकिन, इसका अधिकांश भाग ऐसी बातों की मानसिक अनावशयक जुगाली करते रहने में गंवा दिया जाता है जो न तो वैयक्तिक स्तर पर किसी काम की होती हैं और न ही सामूहिक स्तर पर। अपनी विचारणा और विश्लेषण पर ध्यान केन्द्रित रखना एक ऐसा कौशल है जिसमें निपुणता प्राप्त की जानी चाहिए ताकि हम बुद्धि का अधिकतम उपयोग कर सकें। विचार की स्पष्टता और बौद्धिक रूप से चुनौती देने वाले कार्यों को करने का साहस करने से हमारी बौद्धिक ऊर्जा न केवल अक्षुण्ण रहती है बल्कि पुष्ट भी होती है। एक साधित बुद्धि ही मन को साध सकती है।

 

अपनी ऊर्जा का संरक्षण करने के यत्न में सबसे बड़ी चुनौती होती है अपनी मानसिक ऊर्जा को अक्षुण्ण रखना। विचार, वास्तव में, मन-मस्तिष्क का क्षय और व्यय करते रहते हैं। मानसिक ऊर्जा को, बल्कि मन-मस्तिष्क को भी, अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक है कि जब कोई विचार मन मे उठे तो उसके उठने के औचित्य पर प्रश्न उठाया जाए। अतीत की जुगाली करते रहना और भविष्य की चिंता में घुलते रहना बौद्धिक ऊर्जा के छीजने के सबसे अधिक बहुव्यापी कारण हैं। हमारे मन-मस्तिष्क की ऊर्जा जब व्यर्थ बह जाती है तो वे अस्वस्थ हो जाते हैं जिसे मनोरोग होना कहा जाता है, और यह मनोरोग छोटे-मोटे अवसाद से लेकर शाइज़ोफ़्रेनिया जैसे  गंभीर मानसिक विकार का रूप भी ले सकता है जिसमें रोगी को भ्रम, विभ्रम तथा मिथ्या विश्वास होने लगते हैं। दिवास्वप्न देखने और कल्पनाओं में डूबे रहने से भी मानसिक ऊर्जा का तेज़ी से क्षरण होता है। जो गतिविधियां ऊर्जा की अनावश्यक खपत करती हैं उनसे दूर रहने हेतु मन को साधने के लिए हमें मन को ध्यान के किसी ऐसी विषयवस्तु पर स्थिर रखना चाहिए कि जब मन के समक्ष कोई प्रयोजनशील कार्य न हो, तब वह उसी पर टिका रहे। बहुत सारी आसक्तियां मन-मस्तिष्क को कोलाहल भरा बना देती हैं। एक न्यूनतम आवश्यकताओं वाली जीवन शैली और एक अनासक्ति तथा वीतरागी स्वभाव मन-मस्तिष्क को अपनी ऊर्जा का ध्यान रखने तथा लक्ष्यों की प्राथमिकता को निर्धारित करने में सहायता करते हैं। प्रबल आसक्तियां उन लंगरों की तरह हमें बांधे रखती हैं जिनको डाल कर हम मानो भूल गए हों और इसलिए वे लंगर हमारे मन रूपी जहाज को आगे बढ़ने न दे रहे हों। अपने मन-मस्तिष्क को आसक्तियों तथा कपोल-कल्पित संभावनाओं से मुक्त रखने से वे एक साधित तथा अनुशासित रीति से आचरण करते हैं। मन-मस्तिष्क में कचरा जितना कम कचरा होगा, सड़ांध उन्हें उतना ही कम सताएगी।

अगर हम मन-मस्तिष्क को अक्षुण्ण रख सकें तो वे भी हमारी बौद्धिक तथा शारीरिक ऊर्जा को अक्षुण्ण रख सकेंगे। ऊर्जा का ऐसा संरक्षण एक आध्यात्मिक जीवन का प्रथम चरण होता है।                        

लेखक : संपादक प्रबुद्ध भारतयह आलेख लेखक के अंग्रेजी आलेख का हिंदी अनुवाद है |

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यह लेख सर्वप्रथम प्रबुद्ध भारत के December 2017 का अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रबुद्ध भारत रामकृष्ण मिशन की एक मासिक पत्रिका है जिसे 1896 में स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित किया गया था। मैं अनेक वर्षों से प्रबुद्ध भारत पढ़ता आ रहा हूं और मैंने इसे प्रबोधकारी पाया है। इसका शुल्क एक वर्ष के लिए रु॰180/-, तीन वर्ष के लिए रु॰ 475/- और बीस वर्ष के लितीन वर्ष के लिए रु॰ 475/- और बीस वर्ष के लिए रु॰ 2100/- है।

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