जगन्नाथ पुरी रथयात्रा

  • यह आलेख जगन्नाथ धाम, उनका इतिहास एवं धार्मिक, सांस्कृतिक महत्व को उनकी  सम्पूर्णता में प्रस्तुत करता है | इसके साथ हीं जगन्नाथजी की रथयात्रा का सम्पूर्ण  विवरण, पुरी नगरी और  ओडिशा राज्य के अन्य दार्शनिक स्थलों को भी पाठक से परिचित  करता है | 

ओडिशा राज्य के पुरी में हिन्दुओं की आस्था के प्रमुख धाम जगन्नाथ मंदिर की बात ही निराली है। जहां पर महाप्रभु जगन्नाथ वर्ष में एक बार रथ पर सवार होकर अपने भक्तों को दर्शन देने निकलते है। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को इस रथयात्रा में भाग लेने और दर्शन का लाभ पाने को लाखों-लाख श्रद्धालु यहाँ पर जुटते हैं। 

 

इस रथ यात्रा में श्रीमन्दिर से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र देव और बहन सुभद्रा के विग्रहों की सवारी तीन अलग-अलग विशाल रथों पर बड़डाण्ड (महापथ) से निकलती है जिनको श्रद्धालुओं के हजारों हजार हाथ खींच कर तीन किमी दूर रानी गुन्डिचा के मन्दिर तक ले जाते हैं। सात दिनों के विश्राम के उपरान्त महाप्रभु की सवारी वापस श्रीमन्दिर लौटती है और एक बार पुनः वे मुख्य मन्दिर में प्रतिस्थापित हो जाते है। 

 

पुरी में होने वाली इस यात्रा के अलावा वर्ष भर यहाँ पर बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं का आना होता है जो जगन्नाथ मंदिर के दर्शन के अलावा आस-पास के अदभुत मन्दिरों के दर्शन एवं यहाँ की सांस्कृतिक विरासत से परिचित होते है। 

अनुश्रुतियों में नीलांचल धाम

पुरी के जगन्नाथ धाम को नीलांचल धाम, श्रीक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र, शंख क्षेत्र आदि से भी सम्बोधित किया जाता है। इसकी स्थापना को लेकर अनुश्रुति के अनुसार सतयुग में अवन्ती नगरी के राजा इन्द्रद्युम्न विष्णुजी के परम भक्त थे। वे अपने राज्य में भगवान विष्णु का विशाल मन्दिर बनाना चाहते थे जिससे वे विष्णु के नये रूप को प्रतिष्ठित कर सकें। उन्हें पता चलता हैं क़ि निकट में नीलांचल के घने वनों में आदिवासी शवर विष्णु के नीलमाधव विग्रह की पूजा करते हैं।राजा नीलमाधव विग्रह को पाने के लिये दरबारियों को वहां भेजते  हैं। बहुत ढूंढने पर जब उनको असफलता हाथ लगती है तो वे अपने दरबार के विश्वासपात्र पण्डित विद्यापति को रवाना करते हैं। नीलगिरी के वनों में अंततः विद्यापति को शवर नरेश विश्वावसु की पुत्री ललिता मिलती है। वे उससे प्रेम करने लगते है ताकि वे विवाह कर उसका विश्वास जीत नीलमाधव के विग्रह का पता लगा सकें।

 

एक दिन विद्यापति को नीलमाधव के विग्रह का पता चल जाता है। यह जानकारी देने के लिये विद्यापति राजा के पास लौट जाते हैं । राजा इन्द्रद्युम्न सेना के साथ नीलगिरी की पहाड़ियों से नीलमाधव का विग्रह लाने को निकल पड़ते हैं। किन्तु नीलगिरी की पहाड़ियों में स्थित जिस मन्दिर में नीलमाधव का विग्रह था, वह नहीं मिलता है। इस बीच में राजा को एक देववाणी सुनाई देती है जिसमें उनसे कहा जाता है कि वे सागर के तट पर बांकी नदी के मुहाने पर मौजूद काष्ठ का विग्रह निर्माण कर एक मन्दिर में प्रतिस्थापित करें। इन्द्रद्युम्न सागर तट पर नदी के मुहाने तक जाते हैं और वहां से बताये गई काष्ठ को लाते हैं। विग्रह कैसे तैयार करने को स्वयं विश्वकर्मा बूढ़े शिल्पी के वेश में राजा के पास आते हैं और अपनी नियमो पर विग्रहों को तैयार करने की प्रस्तावना रखते है। चौबीस दिनों तक निर्माण को गोपनीय रखने की बात तय होती है, किन्तु पन्द्रहवे दिन रानी गुन्डिचा उत्सुकतावश वहां  छुप जाती है। ऐसा होते ही विश्वकर्मा वहां जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा तीन अपूर्ण विग्रह छोड़ अंतर्ध्यान हो जाते हैं। रानी गुन्डिचा और राजा को इस भूल पर पश्चाताप होता है और वे प्रभु से क्षमा-याचना करते हैं। इस पर विष्णुभक्त इन्द्रद्युम्न को एक बार फिर से देववाणी सुनाई देती है कि वे चिंता किये बगैर इन अधूरे विग्रहों को ही मन्दिर में स्थापित कर दें। इससे राजा प्रसन्नचित्त होकर वहां एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराते हैं और प्रजापति बह्माजी इसकी प्राण प्रतिष्ठा करते हैं। 

श्रीमन्दिर की स्थापना 

ऐतिहासिक विवरणों की अनुसार वर्तमान श्रीमन्दिर 12वीं शती का निर्मित हैं|  उस समय ओडिशा में गंगा वंश का शासन था जिसके शक्तिशाली नरेश अनन्तवर्मन को पुरुषोत्तम क्षेत्र यानि पुरी में जगन्नाथ जी का ऐसा मन्दिर बनाने की इच्छा हुई जो न केवल भव्य हो परन्तु जिसकी कीर्ति दीर्घ कल तक बानी रहे | इस मंदिर की निर्माण के लिये राजकोष खोल दिया जाता है और कई वर्षों तक जो भी राजस्व आता है वो इसके निर्माण पर लगता जाता है। मन्दिर का निर्माण अनन्तवर्मन के काल में सन् 1147 में बनना आरम्भ होकर उनके पौत्र अनंग भीमवर्मन के काल में सन् 1178 तक चलता है। 

मन्दिर का स्वरूप

जगन्नाथ मन्दिर का परिसर लगभग 10 एकड़ भूमि में फैला है। मंदिर एक चबूतरे पर बना है जो चारों ओर से 7 मीटर ऊंची दीवारों से घिरा है। इसके चारों ओर चार प्रवेश द्वार हैं जिसमें सिंहद्वार मुख्य प्रवेश द्वार है। अन्दर प्रवेश करने पर मुख्यमन्दिर तक जाने को सीढ़ियां हैं। मुख्य मन्दिर ओडिशा शैली में बना है जिसमें चार भाग - विमान, जगमोहन, नाट्यशाला व भोगमण्डप व गर्भगृह हैं। मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त इस परिसर में विमला देवी, नृसिंह, गणेश, सूर्य देव सहित तीन दर्जन बड़े छोटे मन्दिर निहित है जो अलग-अलग काल में निर्मित हुए है। श्री मन्दिर की ऊँचाई 56 मीटर है जिसके पत्थरों पर उत्कृस्ट नक्कासी है । मन्दिर को देख ओडिशा की शिल्प कला की पराकाष्ठा की कल्पना की जा सकती है। मन्दिर में सिंह द्वार के समक्ष अरुण स्तम्भ है जिससे मराठा शासकों ने कोणार्क से लेकर यहाँ पर स्थापित किया था । मुख्य मन्दिर यानि श्रीमन्दिर में आज भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व बहिन सुभद्रा के काष्ठ निर्मित विग्रहों के दर्शन होते है जो हर 12 साल बाद नव-कलेवर उत्सव के समय बदल दिये जाते है। मन्दिर में पूरे साल भर विधि-विधान के अनुसार अनेकानेक उत्सव होते रहते हैं जिनमें रथ यात्रा सबसे प्रमुख है। 

पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा की परम्परा कैसे आरम्भ हुई इसका कोई सही-सही उत्तर नहीं मिलता है। किन्तु मान्यता है कि सुभद्रा के आग्रह पर एक बार दोनों भाई बड़े स्नेह से उन्हें द्वार का भ्रमण के लिए ले गए थे। उसी की स्मरण में हर वर्ष आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को यह पर्व मनाया जाता है। ओडिसा के पुरी में जगन्नाथ जी के मन्दिर बनने के पश्चात यह भव्य यात्रा प्रतीकात्मक तौर पर निकलती है। 

Sthambh shifted by Maratha rulers from Konarak

रथ निर्माण प्रक्रिया

प्रतिवर्ष इस यात्रा के लिये नये रथों का निर्माण किया जाता है। इसके लिये दारु व दूसरे अन्य पेड़ों की पहचान की जाती है जिनसे रथ के विभिन्न हिस्सों को बनाया जाना है। किस रथ में कितने वृक्षों की आवश्यकता होगी, कितनी लकड़ी किसमें लगेगी उनका आकार व संख्या सब निर्धारित रहता है। 

रथयात्रा उत्सव के कई चरण होते हैं। रथ निर्माण का कार्य अक्षय तृतीया को प्रारम्भ होता है जो 58 दिनों तक चलता है। इसको परम्परागत कारीगर ही बनाते हैं जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे करते चले आये हैं। इसके लिये 45, 44 एवं 43 फीट ऊंचे तीन रथ तैयार किये जाते हैं।

भगवान जगन्नाथ का रथ - नन्दी घोष में 16 पहियों का, बलभद्र जी के रथ - तालध्वज में 14 व सुभद्रा के रथ - देवदलन में 12 पहियों का बनाया जाता है। रथों में सजाने के लिये लगभग 1090 मीटर कपड़ा लगता है। रथों को लाल वस्त्रों के अलावा पीत वस्त्रों से जगन्नाथ जी के रथ को, नील वस्त्रों से बलभद्र जी के रथ को व बहिन सुभद्रा के रथ को काले वस्त्रों से मढा जाता है। प्रत्येक रथ के अलग रथपालक होते हैं। इसके अलाव उसमें द्वारपाल व सारथी होते हैं । रथों पर आरूढ करने के लिये काष्ठ से अनेक देवों की मूर्तियां भी तैयार की जाती हैं। किस देव की मूर्ति किस रथ में होगी यह पहले से ही तय रहता है। रथों को खींचने प्रत्येक में नारियल के चार-चार मोटे मोटे रस्से लगे होते है। इनके अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इसी तरह से रथों पर लगने वाले ध्वजों के भी अलग अलग नाम से जाने जाते हैं। 

विभिन्न प्रथायें

रथों के निर्माण के समानान्तर इस यात्रा से सम्बन्धित दूसरी प्रथायें निभाई जाती रहती हैं। इनमें ज्येष्ठ पूर्णिमा को स्नान यात्रा होती है जिसके तहत तीनों विग्रहों को 108 घाटों के जल से स्नान कराया जाता हैं, जिससे देखने के लिए मन्दिर में भारी संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं | स्नान के पश्चांत भगवान अस्वस्थ हो जाते हैं और 15 दिनों के अनासर पर रहते हैं। इस अवधि के 15 दिनों तक उनके दर्शन नहीं होते हैं । विजय अमावस के दिन तीनो विग्रह नवयौवन प्राप्त करते हैं और दर्शन हेतु उपलब्ध होते है।   

रथ यात्रा की पहली रस्म अविस्मरणीय होती है जिसमें एक के बाद एक पुष्पों से मण्डित तीनों विग्रहों को रथ पर लाया जाता है। इसके बाद मन्दिर में पुरी के गजपति महाराज या उनके प्रतिनिधि रथों को स्वर्ण झाड़ू से साफ करते हैं और चंदन को छिड़कते हैं । सज्जा में प्रयुक्त पुष्पों को प्रसाद के रूप में चुन लिया जाता है। इसके बाद ही गुण्डिचा मन्दिर की ओर यह यात्रा प्रस्थान करती है। पहले बलभद्र का रथ, उनके बाद बहिन सुभद्रा का रथ और अन्त में भगवान जगन्नाथ का रथ निकलता है। इन रथों के आगे भजन व कीर्तन करते भक्तों की टोलियां रहती हैं। अपराह्न तक रथ गुण्डिचा मन्दिर पहुंचते हैं।

अगले दिन उन विग्रहों को विधि पूर्वक मन्दिर में स्थापित किया जाता है | इसमें अगले सात दिनों तक जगन्नाथजी की पूजा-अर्चना होती है। उनकी वापसी की बाहुडा यात्रा कुछ देर के लिये मौसी मां मन्दिर के समक्ष रुकती है और सायं को तीनों रथ वापिस श्रीमन्दिर के समक्ष पहुंचते है। यहां तीनों विग्रहों को स्वर्णवेश से सज्जित किया जाता हैं और अगले दिन यानि आषाढ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को तीनों विग्रहों को श्री मन्दिर में पूरे विधि विधान के साथ प्रतिस्थापित कर दिया जाता है। यात्रा की समाप्ति के बाद इन रथों को भंग कर दिया जाता है जिनकी लकड़ी मन्दिर की विशाल रसोई में लम्बे समय तक प्रयोग होती है। 

अपूर्व उत्साह

रथयात्रा के समय कभी चिलचिलाती धूप होती है तो कभी वर्षा। गर्मी व वर्षा से भक्तों के उत्साह में कोई कमी नहीं दिखती है जो सुबह से ही देखने का स्थान घेर लेते है। यात्रा शुरू होने तक श्री मन्दिर से गुन्डिचा मन्दिर तक जाने वाले महामार्ग ‘बड़दाण्ड’में तिल धरने को जगह नहीं बचती है। अनेक बार भारी गर्मी, उमस व शरीर में पानी की कमी के कारण श्रद्धालु बेहोश हो जाते हैं लेकिन उनके ईलाज का वहां पूरा प्रबन्ध रहता है। भगदड़ न हो इसके लिये प्रशासन सदा सतर्क रहता है। आतंक के खतरे को देखते हुये यात्रा में हजारों सुरक्ष कर्मी तैनात रहते है। जबरदस्त सुरक्षा प्रबन्ध अलग से होते है। 

सामान्य दर्शन

अन्य समय पर मन्दिर के दर्शन करने को भी श्रद्धालुओं का प्रवाह बना रहता है। इन दिनों उनकी 64 उपचारों जैसे मंगल आरती, स्नान वेष-भूषा, पाकशाला की दैनिक क्रियाओं, सूर्यपूजा, विविध भोग, सांध्यकालीन आरती से लेकर शयन तक, मन्दिर के खुलने व बंद होने का समय निर्धारित रहता है। इसके अलावा समय के अनुसार महाप्रभु जगन्नाथ जी के विभिन्न श्रृगारों की परम्परा है। जिसका निर्वहन सेवक करते हैं। श्रद्धालुओं के लिये यहां पर दो प्रकार के भोग होतें हैं, एक थोड़ा खाया जाने वाला प्रसाद तो दूसरा भरपेट खाया जाने वाला महाप्रसाद। प्रतिदिन, यह प्रसाद, यहां की विशाल पाकशाला में बनता है। 

यात्रा में भाग लेने को भारत के हर हिस्से से लोग तो आते ही हैं, वहीं विदेशों से भी बडी संख्या में पर्यटक व श्रद्धालु पहुंचते हैं। रथ यात्रा पुरी के अलावा दो प्रमुख मन्दिरों केरल के गुरूवायुर कृष्णमन्दिर एवं द्वारका में भी निकलती है। आज दूसरे शहरों में भी प्रतीकात्मक तौर यात्रा निकलने लगी है।

और क्या देखे 

पुरी, भुवनेश्वर एवं कोणार्क को ओडिशा का स्वर्णिम पर्यटन त्रिभुज कहा जाता है। जहां पर्यटक व श्रद्धालु दर्शन करने के साथ यहां बनी भारतीय शिल्प की सर्वोत्तम संरचनाओं का साक्षात्कार करने को बड़ी संख्या में आते है। यहाँ पर वास्तुशिल्प के अलावा भी देखने को बहुत कुछ है। पुरी की रथयात्रा यहाँ दर्शनलाभ के लिये की होती है वहीं यह अवसर भारतीयता को जानने समझने का भी एक दुर्लभ अवसर प्रदान करता है। पुरी के रथयात्रा में भाग लेने के साथ यात्री  यहां के मन्दिरों व सरोवरों को देख सकते है। इसके एक ओर बंगाल की खाड़ी का तट है। जहां पर स्नान एवं वाटर स्पोर्ट्स का आनन्द लिया जा सकता है। 

मन्दिर नगरी भुवनेश्वर 

पुरी से 65 किमी पर ओडिशा क़ि राजधानी भुवेनश्वर है। कहा जाता है क़ि एक समय में यहाँ मन्दिरों की संख्या एक लाख थी | लेकिन समय के साथ व संरक्षण के अभाव में हजारों मन्दिर नष्ट हो गये। इसके उपरांत भी कई भव्य मन्दिर सरक्षण के कारण बचे रह गये। इनमें से कुछ मन्दिरों को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है तो कुछ राज्य सरकार के अधीन है और कुछ मन्दिर प्रबन्धनों के संरक्षण में है। इसके अतिरिक्त कई मन्दिर ऐसे हैं जो किसी के अधीन नहीे हैं| नगर के पुराने हिस्से में कई मन्दिर कालोनियों के बीच दिख जाते हैं।  

बौद्ध धर्म की अवनति के बाद शंकराचार्य जी ने ओडिशा में हिन्दू नवजागरण का दौर लाएं और फिर से हिन्दू राजाओं की कीर्ति ने अपने चरम को छुआ। इन राजाओं ने दूसरे धर्मों के प्रति पूरा आदर रखा और बड़ी संख्या में हिन्दू धर्मस्थलों का निर्माण करवाया और भुवनेश्वर व आस पास का क्षेत्र इसका केन्द्र रहा। सातवीं शती के बाद यहां पर जितने भी शासक हुये सबने अपने काल में एक से एक भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया। यह क्रम १३वी शती में कोणार्क में सूर्य मन्दिर के बनने तक चलता रहा जो उड़ीसा में स्थापत्य व शिल्पकला का चरम काल था। गंग नरेश नरसिंहदेव की मृत्यु के बाद सम्राज्य विस्तार के लिये मुगलों की दृष्टि इस क्षेत्र पर केन्द्रित हुई जो इस पर नियन्त्रण करने का लम्बे समय तक प्रयास करते रहे। कमजोर शासक व बार-बार उत्तर व पश्चिम से होने वाले के हमलों के कारण फैली अशान्ति के कारण बाद के शासक राज्य में शिल्प कला के उन्नयन के लिये ऐसा कोई उल्लेखनीय काम न कर पाये जो कि उनके पूर्ववर्ती शासकों ने किया। 

यहाँ पर इतने मन्दिर है कि कोई भी देखते-देखते थक जाये । इसीलिये कम ही पर्यटक यहाँ के सारे मन्दिरो को देख पाते हैं तो कईयों को जानकारी नहीं हो पाती है। भुवेनश्वर कें मन्दिरों में सबसे पुराना मन्दिर परशुरामेश्वर है। इसके अलावा यहां पर रामेश्वर, लक्ष्मणेक्ष्वर, भरतेश्वर, शत्रुुघनेश्वर मन्दिर भी है। इसके अलावा अनन्त वासुदेव, मुक्तेश्वर, राजा रानी, मुक्तेश्वर, सिद्धेश्वर व सबमें अतुल्य यहां का लिंगराज मन्दिर है। जो हिन्दू स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना है।

कोणार्क का सूर्य मन्दिर  

पुरी से 30 किमी दूर कोणार्क में विश्वविरासत सूर्य मन्दिर है। इसकी संरचना में जबरदस्त कल्पनाशीलता एवं तत्कालीन भारतीय वास्तुशास्त्र के कौशल का समावेश है। अपने निर्माण के 750 साल बाद इसकी अद्वितीयता, विशालता व कलात्मक भव्यता हर किसी को अचंभित  कर देती है किन्तु यह भी एक यथार्थ है कि जिसे हम कोणार्क के सूर्य मन्दिर के रूप में पहचानते हैं वह पाश्र्व में बने (काफी पहले ध्वस्त हो चुके ) सूर्यमन्दिर का जगमोहन या महामण्डप है। इसके महामण्डप या जगमोहन व भग्न हो चुके मुख्य मन्दिर के आधार पर उत्कीर्ण सज्जा से ही इसे यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल की पहचान मिली है। प्रतिवर्ष इसको देखने को भारत से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से लाखों पर्यटक यहां आते हैं। रास्ते में प्रसिद्ध चन्द्रभागा सागर तट हैं। यहां मार्ग में रामचन्डी एक सुप्रसिद्ध मन्दिर है। पुरी के पश्चिम में प्रसिद्ध चिलिका झील है जहां शीतकाल में प्रवासी पक्षियों का जमावड़ा जुटता है। 

अन्य दर्शनीय स्थान

ओडिशा में बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेष अभी भी हैं। जिस तरह कपिलवस्तु, बोधगया व सारनाथ का संबंध भगवान बुद्ध के जीवन से है, वैसे ही ओडिशा का संबंध उनके दर्शन से है। राज्य के लगभग हर हिस्से से बौद्ध दर्शन से जुड़ी चीजें मिल चुकी हैं। 261 ई. पू. में हुए कलिंग युद्ध के बाद यहां बौद्ध धर्म की लोकप्रियता बढ़ी। इसके बाद ही सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ और सुदूर पूर्व व दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म का विस्तार शुरू हुआ। ओडिशा से बौद्ध धर्म के जुड़ाव के प्रमाण चीनी यात्री ह्वेन सांग की डायरी, अशोक के समय व उनके बाद के स्तूप, ताम्रपत्र, बौद्ध साहित्य और तमाम चित्रों से भी मिलते हैं। धौली की पहाडी पर शान्ति स्तूप, व इसके पाद पर अशोककालीन शिलालेख है। 

ओडिशा अपने हस्तशिल्प, पटचित्र व एप्लीक कला के लिये प्रसिद्ध है। पटचित्र यहां का प्रसिद्ध शिल्प है जो कपड़े पर बनाया जाता है। यह काम पुरी से लगभग 14 किमी दूर रघुराजपुर में प्रमुख रूप से होता है। यहां पर ताड़ के पत्तो, काष्ठ, पत्थर का शिल्प भी बनता है। यहां से 40 किमी. दूर भुवनेश्वर मार्ग पर पीपली में एक अन्य प्रकार का एप्लिक शिल्प बनता है जो इसके लिये एक प्रसिद्ध स्थान बन चुका  है |

कैसे आएं व कहाँ ठहरे

पुरी में ठहरने को यों तो अनेक मठ, मन्दिर व धर्मशालायें हैं लेकिन यहां पर बड़ी संख्या में होटल, रिसोर्ट, गेस्ट हाउस, लाॅज भी है। यात्रा के समय यहां तिल धरने को स्थान भी नहीं होता है। ऐसे में भुवनेश्वर, कटक दूसरे विकल्प है। निकटतम हवाई अड्डा 65 किमी. दूर भुवनेश्वर में है। इस यात्रा में शामिल होने से पहले यदि आने जाने व ठहरने की अग्रिम व्यवस्था कर सकें तो अच्छा होगा। पुरी में स्थान न होने से लोग आसपास ठहरते हैं। राजधानी भुवनेश्वर में हर प्रकार की सुविधायें हैं। देश के कोने-कोने से पुरी व भुवनेश्वर तक अनेक सीधी रेल सेवायें चलती हैं। इस दौरान रेलवे विेशेष रेलगाडियां चलाता है। चेन्नई कोलकाता को जाने वाला राजमार्ग यहां से गुजरता है।

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