- इस आलेख में उत्तराखंड के प्राकृतिक जल स्रोतों के साधन नौल और धार के बारे में जानकारी दी गयी है। इन जल स्रोतों से पहाड़ के लोगों को पानी मुहैया होता है। नौल और धार पर्वतीय जल संचयन प्रणाली के अभिन्न रूप हैं।
जल संसाधनों की संचयन प्रणाली तथा उनके देख-भाल करने की सुदीर्ध परम्परा हमारे देश में आदिकाल से चलती आयी है।
सिन्धु घाटी की सभ्यता में हमें पुरातन जल प्रबन्धन के कई ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। उत्खनन से मिले साक्ष्य से जानकारी मिलती है कि उस समय वहां जलाशय हुआ करते थे और वर्षा जल के निकास के लिए नालियों की व्यवस्था व कुंआ निर्माण की तकनीक भी विकसित थी।
जल धाराओं में कंकड-पत्थर व मिट्टी के छोटे-छोटे बांध भी बनाये जाते थे। इन बाधों का उपयोग पेयजल, सिंचाई व पनचक्की के लिये किया जाता था।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जल संचयन व प्रबन्धन की अलग-अलग परम्पराएं विद्यमान रही हैं, जो आज भी प्रचलन में हैं।
पानी के लिए हिमालयी क्षेत्र में जहां नौल,बौली,पोखर व कुहल का उपयोग किया जाता है वहीं मरुभूमि में कुंड, तालाब, खड़ीन तथा दक्षिणीवर्ती क्षेत्र में बन्धारा ,एरी, सुरंगम जैसे साधनों का उपयोग किया जाता है। क्षेत्र विशेष की भौगोलिक परिस्थिति ही वहां के स्थानीय जल संचयन प्रणाली और उसकी संरक्षण पद्धति को निर्धारित करती है।
भारत के त्रिपुरा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैण्ड, असम, सिक्किम, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर जैसे हिमालयी राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के पारम्परिक साधन मुख्यतः प्राकृतिक जलस्रोत ही होते हैं।
आज भी ग्रामीण जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत भाग इन्हीं जलस्रोतों पर निर्भर है। हिमालयी क्षेत्र के गांवों का अध्ययन करने से यह बात उजागर होती है कि सर्वप्रथम गांव इन्हीं जलस्रोतों के आसपास बसने शुरु हुए थे।
जम्मू-कश्मीर में प्राकृतिक जलस्रोत नाग अथवा चश्मा और हिमाचल प्रदेश में बावड़ी या बौली नाम से जाने जाते हंै। सिक्किम में जलस्रोतों को धारा कहा जाता है।
उत्तराखण्ड की में प्राकृतिक जलस्रोत ’नौल’ तथा ’धार ’अथवा मंगरा नाम से जाने जाते हैं।
उत्तराखंड में इन नौल व धार का सामाजिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्व दिखायी देता है। यहां के कई नौल अत्यंत प्राचीन हैं।
इतिहासविदों के अनुसार उत्तराखंड के कुमांऊ अंचल में स्थित अधिकांश नौल व धार मध्यकाल से अठारहवीं शती ई. के बने हुए हैं।
चम्पावत के समीप एक हथिया नौला, बालेश्वर का नौला, गणनाथ का उदिया नौला, पाटिया का स्यूनराकोट नौला तथा गंगोलीहाट का जाह्नवी नौला सहित कई अन्य नौले अपनी स्थापत्य कला के लिए आज भी प्रसिद्ध हैं।
कहा जाता है कि कभी अल्मोड़ा नगर में एक समय 300 से अधिक नौल थे, जिनका उपयोग नगरवासियों द्वारा शुद्ध पेयजल के लिए किया जाता था।
कुमाऊं के कई गांवों अथवा मुहल्लों का नामकरण भी नौलों धारों के नाम पर हुआ है यथा- पनुवानौला, चम्पानौला, तामानौली, रानीधारा, धारानौला आदि।यहां के ग्रामीण अंचल में विवाह और अन्य विशेष अनुष्ठान अवसरों पर नौल व धार में जल पूजन की समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा आज भी दिखायी देती है। निश्चित तौर पर यह परंपरा हमारे जीवन में जल की उपयोगिता व पर्यावरण में उसके महत्व को दर्शाती है।
कपीना नौल, रेखांकन: निधि तिवारी.
नौल
वस्तुतः नौल ऐसे स्रोत पर बना होता है जहां पर पानी जमीन से रिस-रिस कर पहुंचता है। नौल की संरचना एक प्रकार से वर्गाकार लघु बावड़ी की तरह ही होती है। नौल की तीन दिशाएं पत्थरों की दीवार से बंद रहती हैं चैथी दिशा खुली रहती है। नौल में गन्दगी न जा सके इसके लिए पाथर (स्लेट) की छत से इसे सुरक्षित रखा जाता है।
जल कुण्ड का आकार वर्गाकार वेदी की तरह रहता है जो उपर की ओर अधिक चैड़ा रहता और तल की ओर धीरे-धीरे कम चैड़ा होता रहता है। कुछ जगह पर नौल का एक और रुप भी मिलता है इसेे यहां चुपटौल कहा जाता है। चुपटौल की बनावट नौल की तरह नहीं होती उसकी उपस्थिति अनगढ़ स्वरुप में मिलती है। स्रोत के पास गड्ढा करके सपाट पत्थरो की बंध बनाकर जल को रोक दिया जाता है और इसमें छत भी नहीं होती।
नौल के सन्दर्भ में विशेष बात यह होती है कि इसका स्रोत बहुत संवेदनशील होता है। अगर अकुशल व्यक्ति किसी तरह इसके बनावट और मूल तकनीक में जरा भी छेड़-छाड़ कर देता है तो नौल में पानी का आना बंद हो जाता है।
यही नहीं भू-स्खलन व भू-धंसाव होने तथा भूकम्प आने पर भी नौल में पानी का प्रवाह कम हो जाता है। कभी-कभी तो नौल के स्रोत बन्द भी हो जाते हैं इस वजह से नौल सूखने के कगार पर आ जाते हैं।
स्यूनराकोट नौल, फोटो: कौशल सक्सेना
नौल की बनावट में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि इसमें अतिरिक्त पानी जमा न हो। इसके लिए अन्दर से जल निकास की नाली बनी होती है। नौल के उपरी तल तक पानी का स्तर पहंुचने के बाद इस नाली से अतिरिक्त पानी आसानी से बाहर आ जाता है।
नौल के गर्भगृह में देवी देवताओं की मूर्ति भी स्थापित रहती है। नौल की दीवारें, स्तम्भ व छत विविध कलात्मक डिजायनों से अलंकृत रहती हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार गांव के लोग नौल में नाग देवता और विष्णु भगवान का निवास मानते आये हैं इस कारण लोग उसकी साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखते हैं। यहां के कई लोक गीतों में भी नौल का वर्णन आया है। एक मांगल गीत में नौल की पवित्रता व उसके महत्व को इस तरह बताया गया है।
‘नौल नागिणि वास
ये मेरि नौल कैलि चिणैछि
रामिचंद लै, लछिमन लै,
भरत,
शतुर लै,
चिणैछि
उनरि बहुवन लैं,सीता देही लै,
उरामिणि दुलाहिणी लै,
नौल उलैंछ।’
गांव के लोगों में अत्यंत जिज्ञासा हो रही है कि नागों के निवास स्थल इस सुन्दर नौल को किसने बनाया होगा....!! तब मांगल गीत गाने वाली गिदारियां कहती हैं कि भगवान रामचन्द्र व उनके भाई लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने मिलकर इस सुन्दर नौल की रचना की है और उनकी बहुरानी सीता व उर्मिला दुलहिन इस नौल को साफ किया करती हंै।
कपीना धार, फोटो : लेखक
धार अथवा मंगरा
धार अथवा मंगरे भी उत्तराखण्ड के सबसे अधिक प्रचलित पारम्परिक पेयजल के साधन हैं। पहाड़ का भूमिगत जल जब सोत के रुप में फूटकर बाहर निकलता है तो उसे यहां के निवासी पत्थर अथवा लकड़ी का पतनाला बनाकर उसके जल को इस तरह जमीन पर गिराते हैं ताकि उसके नीचे रखा जलपात्र आसानी से भर सके।
उत्तराखण्ड के कुछ प्राचीन धार के निकास द्वारों पर मकर,कामधेनु अथवा सिंह की मुख आकृति बनी हुई मिलती है।
बरसात के दिनों में भूमिगत जल स्तर बढने से़ कई स्थानों पर मौसमी सोत जमीन से बाहर फूट आते हैं। इस तरह के सोतों में कुछ ही समय तक जल दिखायी देता है। गांव वाले इन मौसमी सोतों के निकास द्वार पर पत्ते लगा देते इससे जल सतह पर आ जाता है।
बनावट के आधार पर उत्तराखण्ड में स्थानीय स्तर पर कई तरह के धार मिलते हैं यथा- सिरपत्या धार , मुणपत्या धार व पतबिड़िया धार आदि। उत्तराखण्ड के नौल व धार सदियों से गांव की महिलाओं के सुख-दुख के प्रत्यक्ष भागीदार रहे हैं। सुबह-शाम पानी भरते समय महिलाएं एक दूसरे से अपने मन हल्का कर लेती हैं। इस दृष्टि से भी यहां के नौल व धार का सामाजिक महत्व देखने में आता है।
उत्तराखण्ड के पारम्परिक जल स्रोतों का अध्ययन करने पर वर्तमान में इनकी स्थिति अत्यंत चिन्ताजनक दिखाई देती है।
किसी समय जल संचयन की यह परम्परा सांस्कृतिक दृष्टि से समाज को समृद्धता और जीवंतता प्रदान करतीं थी। नौल-धार की देखरेख, उनकी सफाई व्यवस्था व जीर्णोद्धार की जिम्मेदारी में सामूहिक सहभागिता का भाव होता था। लोग बढ़-चढ़ कर श्रमदान में भाग लेते थे।
आज पलायन, पर्यावरण असन्तुलन, जनभागीदारी के अभाव तथा पाइप लाइन व नलकूप के द्वारा जल आपूर्ति होने के कारण ये परम्परागत जलस्रोत उपेक्षित और बदहाल स्थ्तिि में आ गये हैं। समाज के लिए यह एक बड़ा प्रश्नचिह्न है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि जल संचयन की इस शानदार परम्परा को पुर्नजीवित करने के लिए समुचित नीति निर्धारण के प्रयास हों। समाज को ध्याने में रखकर ऐसी दीर्घकालिक योजनाओं को लागू किया जाय जिसमें स्थानीय ग्रामीण लोगों की प्रत्यक्ष भागीदारी रहे। नौल व धार में जल प्रवाह की आपूर्ति सदाबहार रहे इसके लिए जलागम क्षेत्रों में चाल-खाल बनाने और चैडी-़पत्ती प्रजाति के पेड़ों का रोपण आदि कार्य महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इस तरह के कामों से पर्यावरण का निरन्तर विकास तो होगा ही साथ ही इस सांस्कृतिक सम्पदा व परम्परा का भी समुचित संरक्षण हो सकेगा। आज अच्छी बात यह भी देखने में आ रही है कि कई सामाजिक संस्थाएं और पर्यावरण प्रेमी अपने स्तर पर इस दिशा में संरक्षण कार्य के साथ ही ग्रामीण लोगों में जागरुकता का प्रसार कर रहे हैं।
लेखक - दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं, तथा सामाजिक-आर्थिक, पर्यावरण,समाज और संस्कृति से जुड़े विषयों पर सतत रुप से लेखन करते हैं।