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गढ़वाल व कुमाऊं अंचल में प्रचलित पारम्परिक वस्त्रा-भूषण

पर्व-त्यौहार, रहन-सहन, अनुष्ठान, रीति रिवाज, कला-साहित्य, बोली-भाषा और वेशभूषा जैसी बातों का अध्ययन संस्कृति के अन्र्तगत किया जाता है और यह संस्कृति ही उस क्षेत्र की समृद्ध विरासत को हम सबके बीच लाती है। विभिन्न क्षेत्रों की तरह उत्तराखण्ड में स्थित गढ़वाल कुमाऊं अंचल की संस्कृति भी अपना विशेष स्थान रखती है।यहां के विविध पर्व, त्यौहार, मेले, नृत्य-गीत एवं वस्त्राभूषण आदि स्थानीय लोक जीवन के साथ अभिन्न रुप से जुड़े हैं।

 

गढ़वाल कुमाऊं अंचल के निवासियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले विविध परिधान आभूषण अपनी बनावट सुन्दरता से हर किसी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सक्षम हैं।यहां के लोक साहित्य, लोकगाथा,लोक कथाओं लोक गीतों में स्थानीय वस्त्रों आभूषणों को बखूबी से वर्णित किया गया है। आज भी अनेक पर्व उत्सव नृत्य गीतों में पारम्परिक परिधानों आभूषणों को यहां अत्यंत उत्साह उल्लास के साथ पहना जाता है।

 

समाजिक विकास क्रम और पुरातन इतिहास के अध्ययन में परम्परागत परिधान आभूषणों की विशेष भूमिका रहती है। मानव और उसके वस्त्र विन्यास का अवलोकन करने पर हमें आदिवासी जनजीवन से लेकर वर्तमान आधुनिक जीवन तक कई महत्वपूर्ण परिर्वतन दिखायी देते हैं। आज से 15000 . पूर्व आदि मानव जब गुफा कन्दराओं में निवास करता था उस समय तब वह पेड़-पौंधों की छाल पत्तों का उपयोग वस्त्र के तौर पर किया करता था।

 

मूलतः प्रकृति से मिले इस आवरण को मानव समय-समय पर अपने विवेक से धीरे-धीरे विकसित करता रहा। लगभग 3000 .पूर्व के आसपास सिंधु घाटी की सभ्यता में मानव ने अपने वस्त्राभूषणों का काफी विकास कर लिया था। वस्त्र के तौर पर उस समय सूती, रेशम और चमड़े का उपयोग किया जाता था। विभिन्न काल खण्डों में वस्त्रों के प्रकार, उसके विन्यास में विकास होते रहने से सूती, रेशमी ऊनी कपड़ों की कताई-बुनाई, कढ़ाई, सिलाई उसके फैशन डिजायन में निरन्तर बदलाव होता रहा।

 

गढ़वाल कुमाऊं अंचल में पारम्परिक परिधानों का स्वरुप आज भी बचा हुआ है यहां के समाज ने स्थानीय भौगोलिक परिवेश के हिसाब से ही इन वस्त्राभूषणों का चयन किया है। यहां प्रचलित पारम्परिक परिधानों का यदि गहनता से अध्ययन किया जाय तो इस क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक इतिहास के अनछुए पक्षों पर नई जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं।

 

पिथौरागढ़ जनपद के दारमा, व्यास चैंदास, चमोली जनपद के नीती माणा तथा उत्तरकाशी जनपद के जाड़ घाटी के भोटिया जनजाति समुदाय द्वारा आज से छह दशक पूर्व भेड़ के ऊन से विविध तरह के पहनने के वस्त्रों अन्य वस्तुओं का निर्माण बहुतायत से किया जाता था। ऊन कातने के पश्चात तब परम्परागत हथकरघों से पंखी, शाल, चुटके, थुलमें  दन सहित अन्य उत्पाद तैयार किये जाते थे।

 

आज से सात-आठ दशक पूर्व में कुमाऊं अंचल में स्थानीय संसाधनांे से कपड़ा बुनने का कार्य होता था। उस समय लोग कपास की भी खेती करते थे। (टेª 1928:एपैन्डिक्स) कुमाऊं में कपास की बौनी किस्म से कपड़ा बुना जाता था और इस काम को तब शिल्पकारों की उपजाति कोली किया करती थी। हाथ से बुना कपड़ा घर बुण के नाम से जाना जाता था टिहरी रियासत में कपड़ा बुनने वाले बुनकरों को पुम्मी कहा जाता था।(भारत की जनगणना: 1931,भाग-1,रिपोर्ट 1933,.सी. टर्नर) उस समय यहां कुथलिया बोरा दानपुर के बुनकर और गढ़वाल के राठ इलाके कुछ विशेष बुनकर स्थानीय स्तर पर पैदा होने वाले भीमल भांग जैसे रेशेदार पौंधों से मोटे वस्त्रों का निर्माण भी किया करते थे। इस तरह के वस्त्रों को बुदला ,भंगेला  अथवा गाता कहा जाता था।

 

में कई परम्परागत परिधान ऐसे भी हैं जिनके नाम अब बमुष्किल सुनाई देते हैं उदाहरण के लिए फतोई, सुरयाव, मिरजई, आंगड़ी, कनछोप, थिकाव, टांक, झाड़न, जाखट, गाती तथा झगुली, झगुल और संथराथ जैसे कई वस्त्रों का नाम अब लगभग चलन से बाहर ही हो गया है।

 Garwhal lady. Nose round is Nath-other Bulaak. Gold necklace is Guloband. Hand is Paunje.

गढ़वाल कुमाऊं अंचल में पर्व उत्सव अथवा यदा कदा अन्य परिस्थितियों में  विशेष वस्त्रों को पहनने की परम्परा है पर्वतीय समाज में सिरोवस्त्र धारण करने की परम्परा को वरीयता दी गयी है। यहां पुरुष महिलाएं दोनों ही अपने सिर को वस्त्र विषेष से ढकते हंै। पुरुषों में जहां टोपी टांका पहनने की प्रथा है वहीं महिलाएं अपना सिर पिछौड़े अथवा धोती साड़ी के पल्लू से ढकती हैं। शौका जनजाति की महिलाएं पर्व विशेष के अवसर पर अपने सिर में च्युक्ती पुरुष ब्येन्ठलो धारण करते हंै।यहां मांगलिक कार्यों के दौरान पुरुष अक्सर सफेद धोती ,कुरता टोपी और महिलाएं रंगवाली पिछौड़ा पहनती हैं। कुमाऊं में होली के अवसर पर होली के होल्यार भी सफेद कुरता पजामा और टोपी पहनकर होली गाते हैं। परिवार में किसी सदस्य के निधन हो जाने पर स्थानीय रिवाज के अनुसार अन्तिम संस्कार करने वाले व्यक्ति को ऊनी स्वेटर, पंखी, सफेद सूती धोती सर ढकने के लिए बगैर सिला सफेद वस्त्र धारण करना होता है।

 

कुमाऊं अंचल में शादी विवाह अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरन होने वाले छोलिया नृत्य में शामिल लोग फा्रकनुमा घेरदार वस्त्र के साथ चूड़ीदार पैजामा पहनकर नृत्य करते हैं। अत्यधिक शीत के कारण उच्च हिमालयी भाग के मुनस्यारी, धारचूला, कपकोट, देवाल, चमोली, जोशीमठ, ऊखीमठ, भिलंगना, भटवाड़ी मोरी, चकराता के सीमांत इलाके में रहने वाले लोग सामान्यतः वर्षभर भेड़ से प्राप्त ऊन से निर्मित विशेष वस्त्रों को पहनते हैं। पहाड़ के बुर्जुग लोग बताते हैं कि आज से पांच छह दशक पहले यहां का समाज जब आर्थिक तौर पर समृद्ध नहीं थे तब अधिकांश परिवार अपने सदस्यों के लिए मारकीन अथवा गाढ़े के कपड़े से बनी पोशाक बनाते थे उस समय अच्छे कपडे़ से बनी कीमती पोशाकें गांव में गिने-चुने लोगों के ही पास हुआ करती थी। किसी रिश्तेदार अथवा सगे सम्बन्धी के परिवार की शादी ब्याह में शामिल होने के लिए तब लोग निकट संबंधियों अथवा अन्य मित्रजनों के विशेष पोशाकों से काम चला लेते थे।

 

आधुनिक शिक्षा तेजी से हो रहे समाजिक आर्थिक बदलाव का सीधा प्रभाव यहां के पारम्परिक परिधानों पर पड़ने लगा है। इस वजह से इन परिधानों को पहनने का चलन समाज में धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। पलायन, व्यवसायिक कार्य की प्रकृति, प्रवास में बस जाना और बाहरी संस्कृति के सम्पर्क में रहने जैसे कारणों से भी पारम्परिक परिधानों के पहनावे में कमी दिखायी दे रही है।इन सबके बावजूद भी पहाड का समाज इन परिधानों को संरक्षण देने का प्रयास कर रहा है जो समृद्ध संस्कृति के लिए नितांत गर्व की बात है।

 

आभूषणों के बारे में यह कथन सर्वमान्य है कि नारी का दूसरा सौन्दर्य उसके आभूषणों में छिपा होता है। निश्चित तौर पर एक नारी का सौन्दर्य तब और अधिक मुखर हो उठता है जब वह सुन्दर परिधानों के साथ-साथ विविध आभूषणों से भी सुशोभित हो जाती है। सम्भवतः इसी कारण हर महिला का अपने आभूषणों के साथ अत्यधिक भावनात्मक लगाव देखा गया है। गढ़वाल कुमाऊं के सन्दर्भ में बात करें तो यहां के अनेक लोक गीतों में भी स्थानीय आभूषणों का वर्णन मिलता है। कुमाऊं गढ़वाल अंचल में प्रचलित पारम्परिक आभूषणों में समानता मिलती है मात्र थोड़ा बहुत अन्तर इनके बनावट और नामों में दिखायी देता है।

 

यहां प्रचलित आभूषणों को जेवर कहा जाता है। आभूषण प्रायः चांदी और सोने के बने होते हैं तथा माला में मनके के रुप में मंूगा काली मोती के दाने पिरोये जाते हैं। गले में आभूषण के तौर पर सिक्कों अथवा मुहरों की माला पहनने की परम्परा यहां पुराने समय से ही चली रही है, जिसे आज भी कुछ समुदायों में देखा जा सकता है। इस आभूषण को यहां हमेल, रुपैमाला, चवन्नीमाला या अठन्नीमाला के नाम से जाना जाता है। प्राचीन समाज में व्यापार विनिमय में धन की विशेष भूमिका होने और विपत्ति काल में उसकी उपयोगिता को देखते हुए ही इस तरह के आभूषणों का चलन रहा होगा। संस्कृति के कई अध्येता इसे वैदिक काल में प्र्रचलित निपक या रुक्म से जोड़ते हैं जो उस समय की व्यापारिक स्वर्ण मुद्रा हुआ करती थी।

 Left is playing Dhol. Right Bag-piper is called Masakbeen. Person sitting is playing Damau.

गढ़वाल कुमाऊं अंचल में एक लड़ी की माला से लेकर नौ लड़ियों की माला पहनने की परम्परा पुरानी है। इस माला में विद्यमान लड़ियां विषम संख्या में होती हैं स्थानीय बोली में यह मालाएं यहां तीनलड़ि, पंचलड़ि, सतलड़ि नाम से जानी जाती हैं। कुमाऊं इलाके में चांदी से बने सुत, धागुल  सोने के से बनी पौंची  व गुलोबन्द आदि आभूषण भी पारम्परिक हैं। इसके अतिरिक्त चरयो, बुलाक, पौंला, इमरती, कनफूल भी परम्परागत आभूषणों की श्रेणी में आते हैं।

 

गढ़वाल में टिहरी की नथ अपनी कलात्मक डिजायन के लिए जानी जाती है। किसी समय टिहरी राज परिवार के शान की प्रतीक रही यह नथ आज आम लोगों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हो चुकी है। लोग बताते हंै कि इस नथ का वजन तीन तोले से लेकर छह तोले तक हुआ करता था। गढ़वाल कुमाऊं अंचल की महिलाओं में नथ अत्यंत प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है और इसे धरोहर के तौर पर संजोये रखने में वह अपना मान समझती हैं।

 

चांदी और सोने के आभूषण बनाने वाले कारीगरों (स्वर्णकारों) को गढ़वाल कुमाऊं में सुनार कहा जाता है। आभूषण निर्माण की परम्परागत कला को कुमाऊं में कुछ वर्मा परिवारों ने आज भी बखूबी से जीवित रखा हुआ है और इस कला को निरन्तर आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। एक समय चम्पावत, अल्मोड़ा, द्वाराहाट, पिथौरागढ़, काशीपुर, पुरानी टिहरी, श्रीनगर बाड़ाहाट के सुनार अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के लिए प्रसिद्ध माने जाते थे।

 

उत्तरकाशी (क) आभूषण

सिर व माथे पर पहने जाने वाले आभूषण - सीसफूल, मांगटिक, बेनी फूल आदि।

नाक में पहने जाने वाले आभूषण - नथ, बुलाक, लौंग, फुल्ली, बीरा, बिड़ आदि।

कान में पहने जाने वाले आभूषण - मुनड़, बाली, कुण्डल, झुमुक, टाॅप्स, लटकन, मुरकी आदि।

गले में पहने जाने वाले आभूषण

गुलोबन्द, हुसुली, मटरमाला, हमेल, रुपैमाला, चवन्नीमाला, अठन्नीमाला, सतलड़ी, चंद्रहार, जंजीर, झुपिया, मोहनमाला, कंठी, जंजीर, च्यंूच, पौंला आदि।

हाथ में पहने जाने वाले आभूषण - धागुल, ठोके, चूड़ी, कंगन, पौंची, मुनड़ि,बाजुबंद, आदि

कमर में पहने जाने वाले आभूषण - कमरबंद, लटकन, अतरदान, सुडी, कमरज्यौड़ि आदि।

पैर में पहने जाने वाले आभूषण - चेनपट्टी, इमरती, बिच्छु, पाजेब, अमरिती,पायल, गिनाल आदि।

 

पुरुषों द्वारा सामान्यतः यहां बहुत कम आभूषण पहने जाते हैं। बावजूद इसके जिन आभूषणों को पुरुषों द्वारा प्रयुक्त किया जाता है उनमें अंगूठी परम्परागत आभूषण के तौर पर सर्वाधिक चलन में है। वर्तमान दौर अब में अधिकतर पुरुष कुण्डल, बाली, गले की जंजीर कड़े आदि को भी आभूषणों के रुप में प्रयुक्त करने लगे हैं।

Lady from Jaunsari region. Around neck is Hansuli. Right of pic performing Lok Nritya called Tandi.

(ख) वस्त्र/परिधान

घाघर - कमर में बांधे जाने वाले इस घेरदार वस्त्र को महिलाएं पहनती हैं। सामान्यतः ग्रामीण परिवेश का यह वस्त्र पूर्व में सात अथवा नौ पल्ले का होता था। घाघरे के किनारे में में रंगीन गोट लगायी जाती है।

 

आंगड़ि - महिलाओं द्वारा ब्लाउज की तरह पहना जाने वाला उपरी वस्त्र। सामान्यतः गरम कपड़े का बना होता है जिसमें जेब भी लगी होती है।

 

धोति - महिलाओं की यह परम्परागत पोशाक है जो मारकीन सूती कपडे़ की होती थी। इसमें मुख्यतः पहले इन पर छींटदार डिजायन रहती थी। अब तो केवल सूती धोती का चलन रह गया है। आज परम्परागत धोती जार्जट अन्य तरह की साड़ियों का स्थान ले लिया है। पहले गांवो में पुरुष लोग भी सफेद धोती धारण करते थे। अब सामान्य तौर पर जजमानी वृति करने वाले लोग ही इसे पहनते हैं

 

रंगवाली पिछौड़ - कुमाऊं अंचल में शादी ब्याह, यज्ञोपवीत, नामकरण अन्य मांगलिक कार्यों में महिलाएं इसे धोती अथवा साड़ी लहंगे के उपर पहनती हैं। सामान्य सूती और चिकन के कपड़े को पीले रंग से रंगकर उसके उपर मैरुन, लाल अथवा गुलाबी रग के गोल बूटे बनाये जाते हैं। इसके साथ ही इसमें विभिन्न अल्पनाएं प्रतीक चिह्नों को उकेरा जाता है। पहले इन्हें घर पर बनाया जाता था परन्तु अब यह बाजार में बने बनाये मिलने लगे हैं।

 

झुगुलि - यह छोटी बालिकाओं (दस से बारह साल की उम्र तक) की परम्परागत पोशाक है। इसे मैक्सी का लघु रुप कहा जा सकता है। पहनने में सुविधाजनक होने के ही कारण इसे बच्चों को पहनाया जाता है।

 

कनछोप अथवा कनटोप - बच्चों महिलाओं द्वारा सिर ढकने का सिरोवस्त्र। यह साधारणतः ऊन से बनाया जाता है। यह ठण्ड से कान सिर को बचाता है।

 

कुर्त - एक तरह से कमीज का रूप।पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला यह वस्त्र कुछ ढीला और लम्बा होता है। इसे पजामें के साथ पहना जाता है।

 

सुरयाव - यह पैजामे का ही पर्याय है। परम्परागत सुरयाव आज के पैजामें से कहीं अधिक चैड़ा रहता था। यह गरम और सूती दोनों तरह के कपड़ों से बनता था। तीन-चार दशक पूर्व तक लम्बे धारीदार पट्टी वाले सुरयाव का चलन खूब था।

 

चुड़िदार पैजाम - पुराने समय में कुछ व्यक्ति विशेष चूडी़दार पजामा भी पहनते थे जो आज भी कमोवेश चलन में दिखायी देता है। यह पजामा थोड़ा चुस्त, कम मोहरी वाला चुन्नटदार होता है।

 

टोपि - सूती अन्य कपड़ों से निर्मित टोपी को पुरुष बच्चे समान तौर पर पहनते हंै। यहां दो प्रकार की टोपियां यथा

गोल टोपी और गांधी टोपी का चलन है। सफेद,काली सलेटी रंग की टोपियां ज्यादातर पहनी जाती हैं।

 

टांक - इसे सामान्यतः पगड़ी भी कहते हैं। इसकी लम्बाई दो मीटर से दस मीटर तक होती है। इसका रंग सफेद होता है।

 

फतुई - इसे यहां जाखट, वास्कट के नाम से भी जाना जाता है। बिना आस्तीन बंद गले की डिजायन वाले इस परिधान को कुरते स्वेटर के उपर पहना जाता है। फतुई गरम और सूती दोनों तरह के कपड़ों से बनती है। कुमाऊं गढवाल में इसे पुरुष जबकि जौनसार रवाईं इलाके में दोनों समान रुप से पहनते हैं।

 

पंखी - क्रीम रंग के ऊनी कपड़े से बने इस वस्त्र को यात्रा आदि के दौरान जाड़ों में शरीर को ढकने के तौर पर प्रयोग किया जाता है। इसे स्थानीय बुनकरों द्वारा तैयार किया जाता है।

 

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि गढ़वाल कुमाऊं अंचल में पुराने समय से प्रचलित तमाम परिधान और यहां के आभूषण अपनी कला और पारम्परिक विशेषताओं की दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं और यहां की सांस्कृतिक विरासत की जीवंतता को बनाये रखने में अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।

 

Author दून पुस्तकालय एवं षोध केन्द्र, 21 परेड ग्राउण्ड,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत।

 

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